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संस्कृति के भूत
डा० इन्द्रचन्द्र शास्त्री, एम० ए०, पी-एच० डी०
संस्कृति शब्द का अर्थ है, वे तत्व जो हमारे व्यक्तित्व का संस्कार करते हैं । आत्मा, बुद्धि, मन, वाणी तथा शरीर सभी व्यक्तित्व के अंग हैं, सामाजिक व्यक्तित्व में धन सम्पत्ति, प्रतिष्ठा आदि बातें भी आ जाती हैं। संस्कार दो प्रकार के होते हैं। विध्यात्मक और निषेधात्मक । सुन्दर वेशभूषा, शारीरिक स्वास्थ्य, वाणी का प्रभावशाली होना, साहस, उदारता, विवेचनशक्ति, सूक्ष्मनिरीक्षण आदि विष्यात्मक संस्कार हैं । स्नान यादि क्रियाओं द्वारा शरीर, वाणी, मन आदि को निर्मल बनाना निषेधात्मक संस्कार है ।
प्रायः देखा गया है कि समय बीतने पर संस्कार के रूप में स्वीकृत तत्व अपने असली लक्ष्य को छोड़ देते हैं और अपने आप में जीवन का अंग बन जाते हैं। उनकी आत्मा लुप्त हो जाती है और निर्जीव शरीर रह जाता है। फिर भी हम उन्हें संस्कृति का अनिवार्य तत्व मानते रहते हैं। ऐसा लगता है जैसे उनके बिना हम असभ्यता के युग में पहुँच जाएगे । चेतना इन तत्वों के बंधन में जितनी अधिक जकड़ी रहती है, उतना ही हम अपने को उच्च समझते हैं। तथाकथित उच्च अतीत के साथ सम्बन्ध जोड़कर गौरव का अनुभव करते हैं । फलस्वरूप विकास रुक जाता है। चेतना अवरुद्ध हो जाती है। संगठन एक निर्जीव ढाँचा रह जाता है। इन्हीं तत्वों को संस्कृति के भूत कहा जाता है।
उदाहरण के रूप में स्नान शरीर शुद्धि का साधन है । किन्तु जब वह धर्म का अंग बन गया तो यह माना जाने लगा कि जितनी अधिक डुबकियां लगाई जायेगी, उतना ही पुण्य अधिक होगा । मैल दूर करने का लक्ष्य विस्मृत हो गया। उस लक्ष्य से स्नान करने वाले को नास्तिक कहा जाने लगा। तीर्थ पर साबुन लगाने और अंगों को रगड़ने तक की मनाई कर दी गई।
भूत शब्द का अर्थ है वे बातें जो बीत चुकों, जिनका उपयोग या जीवन
समाप्त हो चुका। दूसरा अर्थ है प्रेत आत्माएं अस्तित्व नहीं रहा । जीवित व्यक्तियों की हैं। वे हमारी चेतना पर छाए रहते हैं । उनसे अभिभूत व्यक्ति में तरह तरह के मानसिक तथा शारीरिक रोग घर कर
। अर्थात् वे व्यक्ति, जिनका मूर्त अपेक्षा भूत अधिक उन्मुक्त होकर सांस
भयानक होते नहीं लेने देते ।