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अपनश के कथा तथा चरितकाव्यों में जिस सामन्चकालीन वातावरण का चित्रण मिलता है वही आगे चल कर कुतुबन कृत 'मृगावती' तथा अन्य सूफी एवं प्रेमाख्यानक काव्यों में दिखाई पड़ता है। राजकुमार का बहुपत्नीत्व, समुद्र-यात्रा, आदर्श प्रेम, रोमांस तथा धन-यौवन आदि बेभव एवं समृद्धि से उल्लसित जीवन इसी तथ्य की ओर संकेत करता है।
इस प्रकार मध्ययुगीन साहित्य में विकसनशील पौराणिक क्या लोकाख्यानों से एक नवीन ही काव्यधारा का प्रचलन हुआ, जो बागे चलकर स्फी प्रेमाख्यानक तथा हिन्दी के प्रेमाख्यानकों में पल्लवित तथा पुष्पित हुई। वस्तुतः अप्रभंश-कथाकाव्य की यह धारा चिर-प्रचलित प्राकृत लोकाख्यानों की परम्परा में विक्रसित हुई है जो मूलतः नायकों के चरित तथा धार्मिक प्रभाव को प्रकाशित एवं प्रसारित करने में अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुए हैं। और यही कारण है कि अपभ्रंश के प्रत्येक कथा तथा चरितकाव्य में किसी न किसी आदर्श की प्रतिष्ठा हुई है। भारतीय मान्य सिद्धान्तों की भांति इन का मूल स्वर आदर्श का है, यथार्य का नहीं। यद्यपि व्यक्तिवादी आदशौं तथा मान्यता की अवहेलना नही की गई है और कहीं-कहीं उनका प्रभाव भी दर्शाया गया है किन्तु अन्त धार्मिक वातावरण तथा आदर्श सिद्धान्तों के पालन और पूर्णता के साथ हुआ है। स्पष्ट ही अपभ्रंश के कथा तथा चरितकाव्यों का प्रारम्भ
और अन्त शान्त रम में पर्यवसित हुया है। इसलिए इन काव्यों के अध्ययन से कभी-कभी यह प्रतीत होने लगता है कि जीवन के मूल्यों की उपेक्षा की गई है परन्तु दूसरे ही क्षण शान्ति और वैराग्य की झलक बहिमुखी लोक से अन्तर्लोक की ओर आकर्षित किये बिना नहीं रहती है। और यही इनकी सामान्य विशेषता है। *
• डा. देवेन्द्रकुमार जैन, पो-एच. डी, प्राध्यापक, शासकीय विज्ञान महाविद्यालय, रायपुर (म.प्र.)