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[ १२ ] कितनी लम्बी, किवनी चौड़ी और कितनी मोटी होनी चाहिए ! चम्मच का अगला भाग कितना बड़ा होना चाहिए और पिछला कितना? मंत्रपाठ करते समय किस अक्षर को जोर से बोलना चाहिए और किसे मंद स्वर से यजमान
और पुरोहित को कैसे कपड़े पहनने चाहिए आदि बातें महत्वपूर्ण हो गई। कहा जाने लगा कि इनमें सनिक-सा भी फर्क होने पर देवता नहीं आयेंगे और यस का फल नहीं मिलेगा।
जैन धर्म सैद्धांतिक दृष्टि से ऐसी बातों को महत्व नहीं देता। वहाँ सिद्धों के १५ भेद बताये गए हैं, उनसे पता चलता है कि साधक, स्त्री हो या पुरुष जैन साधु के घेश में हो या अन्य किसी में, अपेक्षित जीवन शुद्धि होने पर मोक्ष प्राप्त कर सकता है। अनेकांतवाद प्रत्येक दृष्टि का समन्वय करने के लिए कहता है और एकान्तवाद को मिथ्यात्व मानता है। जैन विद्वान् तथा साधु दूसरों के सामने अपनी उदारता दिखाने के लिए यही रूप उपस्थित करते हैं किन्तु अपने जीवन में उसे कहाँ तक अपनाते हैं यह विचारणीय है। जैन साधु संस्था भी वेशभूषा तथा बाह्य क्रियाकांड को कम महत्व नहीं देती। मुख वस्त्रिका कितनी लम्बी चौड़ी होनी चाहिए, उसे मुंह पर बांधे रखना चाहिए या हाथ में, रजोहरण की डंडी कितनी बड़ी होनी चाहिए, मूर्ति की पूजा करनी चाहिए या नहीं। यदि करनी चाहिए तो वह नग्न होनी चाहिए या सवस्त्र इत्यादि बातें चर्चा का विषय बनी हुई हैं और उनके पीछे आत्मसाधना की उपेक्षा होती जा रही है।
सामाजिक क्षेत्र में ये भूत रूदियों के रूप में चिपके रहते हैं। कर्णधारों को भय लगा रहता है कि उन्हें छोड़ देने पर प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल जायगी। समाज रसातल में चला जाएगा। मृत्युभोज, छुआछूत, जात-पात, नारी के प्रति हीन भावना आदि इसी प्रकार के भूत हैं।
राजनीति में इन भूतों का प्रभाव समाज से भी अधिक भयंकर है। उपयोगिता न होने पर भी कमर में तलवार बांधकर चलना, वर्षा या धप न होने पर भी छत्र लगाये रहना, मक्खियां न होने पर भी चैंबर का घूमते रहना, हाथी, घोड़े, रथ आदि का मिथ्या प्रदर्शन, अहंकारपूर्ण वेशभूषा आदि बातें अब भी राजघरानों को घेरे हुए हैं। इनमें से बड़ा भूत है राष्ट्रीयता, जिसके कारण एक व्यक्ति सीमा-विशेष के इस ओर बसे हुए नागरिकों को अपना मित्र मानता है और उस तरफ वालों को शत्रु। यह वृत्ति उस समय का संस्कार है जब मानव छोटे-छोटे कुलों में रहता था और वे आपस में लड़ते