________________
पर भी प्र-माहाल्ब तथा अनुष्ठानों से संबद्ध होकर काव्य-बंध का अंग ही नहीं, पाव बन गई है। महाकवि धनपाल कृत "भविसयस कहां ऐसी ही कया है जो पहले भुवि के रूप में वर्षों तक जन-मानस में प्रचलित रही और फिर परम्परागत प्रबन्ध काव्य की शैली में लिखी गई।
भारतीय साहित्य में कदाचित् प्राकृत और अपभ्रंश में इस साहित्यिक विद्या का सूत्रपात हुआ जिसमें कथा और काव्य मिल कर लोक-जीवन के परिपाश्व में यथार्थ रीति से गतिशील तथा मनुष्य जीवन में घटनाओं का रोमांचक एवं वास्तविक प्रभाव दर्शाते हैं। यद्यपि कहीं-कहीं पौराणिक प्रवृत्ति के बनुगमन से घटनाओं में अस्वाभाविकता-सी जान पड़ती है परन्तु प्रवन्धसंघटना और वस्त-निर्वाह में शिथिलता नहीं देखी जाती। अपभ्रंश के इनकथाकाव्यों का विशिष्ट गुण है-प्रेम की मधुर व्यंजना। अधिकतर नायक पवित्र प्रेम से प्रेरित एवं संचालित दिखाई पड़ते हैं। कहीं-कहीं प्रेम की उदात्त व्यंजना धार्मिक वातावरण में हुई है और कहीं-कहीं शुद्ध मानवीय । इस रूप में हिन्दी के प्रेमाख्यानक काव्य वस्तु एवं शिल्प-रचना की दृष्टि से ही नहीं, शेली और भावों में भी अपभ्रंश के कथाकाव्यों से प्रभावित जान पड़ते हैं। ___ कथा पहले आख्यान थी जो शुद्ध इतिवृत्त थी। परन्तु ज्यों-त्यों काव्यतत्वों से उसका सम्बन्ध जड़ता गया त्यों-त्यों वह कहानी का रूप लेती गई। लेकिन हम उसे कथा ही कहते रहे। संस्कृत में लिखी गई कथाएं गद्य में हैं। परन्तु प्राकृत और अपभ्रंश में छन्दोबद्ध लिखने की प्रवृत्ति रही है। गुणाढ्य की "बृहत्कथा' से लेकर आज तक न जाने कितनी तरह की कथाएं और कहानियाँ लिखी गई जो नीति, रीति, शेली आदि विभिन्न विषयों में अर विविध रूपों में लिखी जाती रही है और आज वह प्रवाह किन-किन परिवर्तनों के बीच विभिन्न विधाओं में प्रस्फुटित हो गया है।
अपभ्रंश के उपलब्ध कथाकाव्यों में महाकवि धनपाल विरचित "भाविष्यदत्तकथा बहुत ही सुन्दर रचना है। कथा तथा चरितकाव्यों में यह सबसे बड़ी रचना है। अपभ्रंश में इससे बड़ी रचनाएं पौराणिक प्रबन्धकाव्यों के रूप में मिलती है जो निश्चय ही संस्कृत साहित्य की परम्परा का अनुसरण करती प्रतीत होती है। इनमें पुराणों के पंच लक्षण किन्हीं तथ्यों के साथ चरितार्थ मिलते हैं। परन्तु कथाकाव्य पौराणिकता से हट कर लिखे गये हैं। कहीं-कहीं प्रभाव रूप में या परम्परागत प्रवृत्ति के निर्वाह मात्र के लिए अवश्य कुछ प्रभाव लक्षित होता है। अपनश का अधिकतर साहित्य चरित तथा