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कथाकाव्य मूलक है। चरितकाव्य और कथाकाव्य में कई बातों में मौलिक अन्तर है।
यदि हम दसवीं शताब्दी से लेकर पन्द्रहवीं शताब्दी तक के भारतीय साहित्य का अनुशीलन करें तो शत होगा कि इस मध्ययुगीन भारतीय काव्यों की मुख्य प्रवृचि उदात्त प्रेम की मधुर व्यंजना रही है। यद्यपि इस युग के काव्यों में वर्णित प्रेम अतिलौकिक भाव-भूमिकाओं में चित्रित हुआ है परन्तु काग्य का सामान्य धरातल लौकिक प्रेम में ही अभिव्यक्त हुआ है। इसलिए अतिलौकिक प्रेम और बादशी को समझने के लिए हमें किन्हीं प्रतीकों और रूपकों की संयोजना करनी पड़ती है। वस्तुतः ये कथाकाव्य मध्ययुगीन भारतीय साहित्य की देन है जो लोक-जीवन की परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं। अतएव हम इस युग का पुनर्जागरण का काल (Renaissance) कह सकते हैं, जिसमें जन-चादी प्रवृत्तियाँ जन्म ले रही थी और लोक-चेतना का विकाम हो रहा था। इस युग के साहित्य में एक विशेषता यह भी लक्षित होती है कि साहित्य की भाव-भूमि सामन्तवादी धरातल से हट कर लोक-जीवन की ओर बढ़ रही थी। इसलिए कथाकाव्य का नायक आदर्श पुरुष ही नहीं, राजा, राजकुमार, बनिया, राजपूत या अन्य कोई साधारण से साधारण पुरुष हो मकता था जो अपने पुरुषार्थ से असाधारण व्यक्तित्व वथा गुणो को प्रकट कर मानव बन सकता था। इससे देश के साहित्यिक विकास की एक नवीन उत्थानिका का पता लगता है जो मध्ययुगीन साहित्य में व्याध दिखाई पड़ती है। ___ अपभ्रश और हिन्दी के प्रेमाख्यानक काव्यों में निम्नलिखित बातों मे बहुत कुछ समानता मिलती है :
१-कथा-वस्तु एवं घटनाओ में कही-कही अद्भुत समानता मिलती है। प्रत्येक कुंबर या राजकुमार की समुद्र-यात्रा और सिंहलद्वीप में सुन्दरी का वरण करना एक ऐसी सामान्य घटना है जो लगभग सभी प्रेमाख्यानक काव्यों में मिलती है। इसी प्रकार चित्र-दशन, रूप-दर्शन, प्रथम-मिलन व दर्शन में ही प्रेम हो जाना आदि वा समान रूप से मिलती है।
२-सामन्तयुगीन वैभव, भोग-विलास तथा युद्ध के चित्रण भी इन काव्यों में वर्णित हैं। किसी-किसी कथाकाव्य में सुन्दरी के लिए भी युद्ध
१-विशेष विवरण के लिए द्रव्य है-लेखक का “भविस पन्तकहा और अपभ्रंश कथाकाव्य' शीर्षक शोष-प्रबन्ध ।