SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 186
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ १६३ 1 उठानेवाली देशबा है उसे प्रकाशित किया-दुःख, समुदयः, मार्ग और . निरोध। जैसे कालिमा रहित शुद्ध वस्त्र अच्छा रंग पकड़ता है, वैसे ही सिंह सेनापति को उसी आसन पर बेठे विमल, विरज, धर्मचक्षु उत्पन्न हुआ, जो कुछ समुदय धर्म है, वह विरोध धर्म है। सिंह सेनापति दृष्टधर्म, प्राप्तधर्म, विदित धर्म, परिअवगाढ़ धर्म, संदेहरहित, वाद-विवाद रहित, विशारदताप्राप्त, शास्ता के शासन में स्वतंत्र हो, भगवान से बोला-"भन्ते! भिक्षु संघ के साथ भगवान् मेरा कल का भोजन स्वीकार करें। भगवान ने मौन स्वीकृति दी। सेनापति, स्वीकृति जान, भगवान् को अभिवादन व प्रदक्षिणा देकर चला गया। नब सिंह सेनापति ने नौकर से कहा-"जा तं तैयार मांस को देख तो।" फिर सिंह मेनापति ने रात के बीतने पर उत्तम खाद्य, भोज्य तेयार कर भगवान् को काल की सूचना दी। भगवान ............ (चीवर ) पहनकर, पात्र चीवर ले सेनापति के घर गए । भिक्षुसंघ के माथ बिछे आसन पर बेठे। उस समय बहुत से निर्गन्य ( जैन माधु) वैशाली में एक सड़क से दूसरी सड़क पर, एक चौराहे से दूसरे चौराहे पर बाँह उठाकर चिल्ला रहे थे-आज सिंह सेनापति ने श्रमण गौतम के लिए, मोटे पशु को मारकर भोजन पकाया है। श्रमण गौतम जान बूझ कर अपने उद्देश्य से किए गए उस मांस को खाता है। किसी पुरुष ने सिंह के कान में यह बात नहीं। सिंह ने कहा-"जाने दो आयौँ। चिरकाल से ये आयुष्मान् निर्ग्रन्थ बुद्ध धर्म-मंघ की निंदा चाहनेवाले हैं। हम तो प्राण के लिए भी प्राण नहीं मारते।" समीक्षा उपर्युक्त उल्लेख हमें कुछ चिन्तन के लिए प्रेरित करता है। जैसे-निगण्ठ नाथपुत्त ने 'मिह' से कहा-"तूं क्रियावादी होते ही भी अक्रियावादी श्रमण गौतम के पाम क्या जाएगा?" यह सर्वविदित है कि भ. महावीर स्याद्वादी थे। अत: वे अपने को सर्वथा क्रियावादी कह ही नहीं सकते थे। जिस दृष्टि से वे अपने को क्रियावादी मानते थे, उस दृष्टि से बुद्ध को भी मानते थे। जैसे जैन तथा बौद्ध दोनों आत्मवादी दर्शन हैं। अतः दोनों पुण्य-पाप, बन्ध और मोक्ष को भी मानते हैं। इसलिए "अस्ति आत्मा पुण्यादि च, इत्येवं क्रिया वदित, शीलं येषां ते क्रियावादिनः” इस दृष्टि से जैन क्या, सभी आस्तिकदर्शन क्रियावादी हैं। पर म. महावीर ने कहा-जो एकान्त क्रियावादी
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy