SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ १६४ 1 der अक्रियावादी है वह मिथ्यात्वी है । जो आत्मा, लोक, ज्ञान और क्रिया के समवेत स्वरूप को मानता है वही सम्यग् दृष्टि है। अतः यह सिद्ध है कि. भ० महाबीर एकान्त दृष्टि से क्रियावादी नहीं थे। जिस दृष्टि से वे कियाबादी थे, उस दृष्टि से 'बुद्ध' को भी अक्रियाबादी नहीं मानते थे । अतः उक्त कथन म० महावीर के लिए संगत नहीं हो सकता। बल्कि भ० सूत्रकृतांग में तथागत को क्रियावादी सिद्ध कर उनके मत का है। उन्होंने कहा :-- महाबीर ने तो निरसन क्रिया अहावरं पुरक्खायं, किरियावा दंसणं । कम्मचिन्ता पणहूरणं, संसारस्स पवणं ॥ सू० कृ० १६१,२, २४ बौद्ध दर्शन प्राणियों के चतुर्विध कर्मबन्धन को नहीं मानता। वह यह है -- अविशोपचित, परिशेोपचित, स्वप्नान्तिक और ईर्ष्यापथिक । अतः भ० महावीर ने कहा -- जिनकी कर्मचिन्ता नष्ट हो गई, केवल चैत्यकर्मादिक क्रिया ही जिनके मोक्ष का प्रमुख अंग हैं, उन क्रियावादियों का दर्शन संसारवृद्धि का हेतु है ।" अस्तु, इस दृष्टि से प्रत्युत श्रमण गौतम क्रियावादी ही ठहरते हैं । अतः अं० नि० के उल्लेखानुसार भ० महावीर उन्हें अक्रियावादी कैसे कह सकते थे ? उक्त उल्लेख में तथ्य इतना ही लगता है कि भ० महावीर आमिष भोजन को, भले ही वह सहज निर्मित हो या उद्दिष्ट, किसी भी हालत में अभक्ष्य और अविहित ही मानते थे । श्रमण गौतम सहज बने हुए को अकल्प्य नहीं मानते थे; अतः उसका प्रयोग करते थे । सम्भव है जैन लोग इसका विरोध करते थे कि यह तामसिक होने के कारण भिक्षु के लिए अभक्ष्य है । अतः लगता है कि सहज बने मांसाहार को निर्दोष सिद्ध करने के लिए ही उन्होंने इस विस्तृत प्रसंग को गढ़ा है। १ सू० १-१-२-२४ की टीका ।
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy