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[ १६२ ] व्याकुल बनाया । निगण्ठ नाथपुत्त के रोकने से मन शान्त हुआ । पर चौथी बार गौतमबुद्ध की प्रशंसा सुनकर गमन की प्रबल अभिलाषा को रोक नहीं पाया । मन ही मन उसने चिन्तन किया। निगण्ठ नाथपुत से पूछूं या नहीं । आखिर जाऊँगा तो वह मेरा करेगा भी क्या ? क्यो न बिना पूछे ही श्रमण गौतम के दर्शनार्थ चला जाऊँ ।”
उसी दिन पाँच सौ रथों को साथ ले भगवान् के दर्शनार्थ गया । अभिबादन के अनन्तर, एक ओर बैठ, भगवान् से कहा - "भन्ते ! मैंने सुना हैश्रमण गौतम अक्रियावादी है। क्या यह आपके लिए संगत है ?"
" सिंह ! किसी कारण से मेरे लिए उक्त कथन मंगत हो सकता है। क्योंकि मैं मन, वचन और काय दुश्चरित को अक्रिया कहता हूँ । शिष्यो को उससे बचने का उपदेश देता हूँ। इस दृष्टि से मैं अक्रियावादी है । पर इसके साथमाथ मैं क्रियावादी भी हूँ। क्योकि मन, वचन और काय सुचरित को मैं क्रिया कहता हूँ और उसीके अनुष्ठान का उपदेश देता हूँ । सिंह ! इस प्रकार भिन्न-भिन्न कारणों से मुझे उच्छेदवादी, जुगुप्सु, तपस्वी, वैनयिक आदि आदि भी कह सकते हैं ।"
सिंह -- " आश्चर्य ! भन्ते ! आश्चर्य !! मुझे माञ्जलि शरणागत स्वीकार करें ।"
" सिंह | सोच विचार के साथ यह कार्य करो । "
"यह भन्ते, मैं दूसरी बार भी आपकी शरण जाता हूँ । भन्ते ! दूसरे तैर्थिक मुझे श्रावक पाकर, सारी वैशाली में पताका फहराते कि सिंह हमारा श्रावक बन गया । इसके विपरीत आप कहते हैं कि सोच-विचार कर करो ।”
" सिंह ! तुम्हारा घर दीर्घकाल से निर्ग्रन्थों के लिए प्याऊ सा बना हुआ है, अतः अब उनको भिक्षा नहीं देना चाहिए, ऐसा मत समझना । "
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। तब भगवान्
" भन्ते ! यह और भी प्रसन्नता की बात है । मैंने सुना था, श्रमण गौतम कहते हैं कि मुझे ही दान देना चाहिये, अन्य किसी को नहीं। पर भगवान् तो निर्मन्थों को देने के लिए भी कहते हैं, हम भी उसे युक्त मानते हैं। यह भन्ते ! तीसरे बार भी मैं, भगवान् तथा भिक्षु संघ की शरण जाता ने सिंह सेनापति को आनुपूर्वी कथा कही । जैसे दानकथा, शीलकथा, स्वर्ग कथा, काम भोगों के दोष, अपकार, क्लेश और निष्कामना का माहात्म्य प्रकाशित किया । जब भगवान् ने सिंह सेनापति को अरोगन्चित्त, मृदुचित्त, अनाच्छादित चित्त, उदग्रचित्त, प्रसन्नचित्त जाना, तब जो बुद्धों की स्वयं
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