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[ १४. ] से प्रश्न पूछना। कल्प भाष्य की गाथा १३१३ और उसकी टीका में चूड़ामणि यन्य का उल्लेख है जिससे भूत, भविष्यत् और वर्तमान के लाभ और अलाभ की जानकारी मिल सकती है।
प्राचीन प्रश्न व्याकरण के लुप्त होने का एक यह भी कारण हो सकता है कि उसमें शुभाशुभ बतलाने वाली अनेक विचित्र विद्यायें थीं और उन विद्याओं का उपयोग जैन मुनियों के लिये निषिद्ध है अतः दुरुपयोग होने की सम्भावना से उस अन्य को प्रचार में नहीं रखा गया हो और आश्रव और संवर के निरूपण करने वाले अन्य को उसी नाम से और उसी के स्थान पर प्रचारित व प्रतिष्ठित कर दिया गया हो।
प्रश्न व्याकरण का उल्लेख अन्य किस-किस आगम, नियुक्ति, चूर्णि, टीका आदि ग्रन्थों में मिलता है और यदि कहीं इस अन्य का उद्धरण भी दिया गया हो तो उसकी अच्छी तरह खोज की जानी चाहिये। जिससे उपरोक्त आगम की प्राचीनता आदि के सम्बन्ध में विचार करने में सुविधा हो।
प्रश्न व्याकरण के विवरण व प्रकाशित संस्करण इम सूत्र पर कोई नियुक्ति, चूर्णि आदि प्राचीन विवरण नहीं मिलते । सं० ११२० के लगभग अभयदेवसूरि की संस्कृत टीका ही सर्वप्रथम रची गई जिसे द्रोणाचार्य ने संशोधित किया। उसके बाद पार्श्वचन्द्र सूरि (१६वीं शती) ने राजस्थानी गद्य में बालावबोध नामक भाषाटीका बनाई। तदनन्तर अजितदेव सूरि (१७वीं शती के प्रारम्भ) ने दीपिका नामक संस्कृत टीका की रचना की जो अभी तक अप्रकाशित है (मूल ग्रन्थ का परिमाण करीब १३०० श्लोकों का है । अभयदेव सूरि की टीका का परिमाण जैन प्रन्यावली के अनुसार ४६०० श्लोकों का है।) संवत् १७६३ के आसपास ज्ञानविमल सूरि ने इस सूत्र की वृत्ति वनाई जो दो भागों में मुक्ति विमल जैन ग्रन्थमाला द्वारा सं० १९६३६५ में प्रकाशित हो चुकी है। दया विमल जैन ग्रन्थमाला द्वारा सं० १९८९ में प्रश्न व्याकरण के इस सूत्र के आश्रव द्वार का गुर्जर भाषानुवाद प्रकाशित हुआ है। उसके प्रारम्भ में कवर पृष्ठ पर इस सूत्र का रचयिता भद्रबाहु स्वामी बतलाया है, पता नहीं उसका आधार क्या है ? अन्त में इस विवरण को ज्ञानविमल सूरि विरचित लिखा गया है। सम्भव है शान विमल सूरि की टीका पर यह गुर्जर भाषानुवाद आधारित हो।
इस सूत्र का सर्वप्रथम प्रकाशन राय धनपत सिंह बहादुर ने सं० १९३३ में किया था. जिसमें अभयदेव सूरि की टीका के साथ भगवान विजय कृत