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[ १ ] स्पाद्वाद और सापेक्षवाद
है ।
स्याद्वाद जैन दर्शन का सर्वथा मौलिक और नितान्त उपयोगी सिद्धान्त आज तक अन्यान्य दार्शनिकों और विद्वानों ने इसका प्रतिवाद ही किया। इस पर नाना आरोप लगाए और जैन दर्शन का सबसे लचीला सिद्धान्त कहकर बड़ी आलोचना की ; लेकिन ज्योंही पाश्चात्य दार्शनिकों का सापेक्षवाद सम्बन्धी विश्लेषण सामने आया तो एक साथ सभी को सतर्क होना पड़ा और अब धीरे-धीरे यह गहन विषय भी सबके लिए सुपाच्य बन रहा है । स्याद्वाद सम्बन्धी विवेचन को देख यह नहीं लगता कि जैन-दर्शन और पाश्चात्य दर्शन कोई दर्शन-जगत् की दो धाराएं हैं।
जैन- दर्शन ने कहा- "हर तथ्य अपेक्षा अनपेक्षा से ही सिद्ध होता है ।"" अन्यत्र उल्लेख है - "वक्ता को विवक्षा भेद से ही बोलना चाहिये। किसी अपेक्षा से लोक है भी और नहीं भी ।" अपेक्षा भेद से एक ही व्यक्ति पुत्र, पिता, मामा, चाचा, भांजा, भतीजा सब कुछ बन जाता है। *
स्याद्वाद को समझाने के लिए अनेक उदाहरण दिये गये हैं । उनमें एक यह भी हैं । जैसे बिलौना करनेवाली गोपी के दोनों हाथ विपरीत दिशागामी" होते हैं, पर उनसे तथ्य एक ही निकलेगा (मक्खन)। वैसे एक वस्तु में विरोधी अनन्त धर्मों का समावेश कोई अनगढ़ कल्पना नहीं। इसी तरह और भी सहस्रों वर्ष पूर्व सम्भाषित जैन आगमों में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, स्यादस्ति स्यान्नास्ति, द्रव्यगुण पर्याय, सप्तनय आदि विविध रूपों में स्याद्वाद के बीज बिखरे पड़े हैं।
पाश्चात्य दर्शन के सापेक्षवाद में भी ठीक ऐसे ही तथ्य और उदाहरण उपलब्ध होते हैं । पाश्चात्य जगत् में अभी अभी तक तो केवल आइंस्टीन का ही सापेक्षवाद प्रसिद्ध था लेकिन पाश्चात्य दर्शनों के इतिहास में बताया है। कि ई० पू० ६०० में हैरेक्लीट्स ने सापेक्षवाद का सांगोपांग विवेचन दिया तथा और भी आइन्स्टीन के अतिरिक्त पाश्चात्य दार्शनिक हैं जिनकी मान्यताओं में स्याद्वाद का आभास ही नहीं, स्पष्ट तत्त्व मिलता है।
२ - अर्पितानर्पितसिद्ध: ( तत्वार्थाधिगम पृ० ३१ )
१ - विभज्जवायं च वियागरेज्जा ( सू० १-१३ )
३- लोए अस्थिवि पत्थिवि अवन्त्तव्वं सिया ( आचारांग )
४ - विवक्षा विवक्षातः संगति ( जैन प्र० ६ सू० ३० ) ५ - एकेनाकर्षन्ती...