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[१ ] यह निष्कर्ष निकलता है कि वर्तमान जीवन के अतिरिक्त भी जीवन का अस्तित्व रहता है-ऐसी पाश्चात्य दार्शनिकों की कल्पना ही नहीं उन्हें गहरा विश्वास था जो पुनर्जन्म और पूर्वजन्म दोनों की ही आधार-शिला बन सकता है।
ईश्वरवाद और मुक्ति ईश्वरवाद और मुक्ति के बारे में जो धारणाएं जैन-दर्शन की हैं, कुछेक दार्शनिकों को छोड़कर लगभग पाश्चात्य दार्शनिकों की भी वैसी ही है। जैन दर्शन में समस्त कर्म-क्षय होने पर जो आत्मा का स्वरूप' (ज्ञान-दर्शन में अवस्थान) है वही मुक्ति है और ऐसी मुक्तात्माएं अनन्त मानी गयी हैं तथा यह भी जेन-दर्शन की विशेष मान्यता है कि मनुष्य ही क्रिया करते-करते ईश्वर बनता है।
यही बात दार्शनिक मेक्टेगर्ट ने कही-"ईश्वर के स्थान में सभी आत्माए वास्तविक रूप में पूर्ण और अनादि है। ___ लाइबनित्स ने कहा-"ईश्वर मबसे बड़ा मोनोद है। वही शुद्ध सक्रियता है और स्वयं में पूर्ण है।
जान लॉक ने कहा--(शुद्ध स्पिटीक) ईश्वर केवल ४ सक्रिय है। मैल्फस पर्फेरी ने भी भारतीय दर्शनों की भाँति अन्तिम उद्देश्य मुक्ति को ही माना है। उन्होंने कहा-'धर्म, तप, यम, नियम से चित शुद्ध करके समाधि या तुरीय अवस्था में पहुंच कर मुक्त होना मनुष्य का परम उद्देश्य है।" ओइकन ने मुक्तात्मा के स्वरूप का और भी गहराई से विश्लेषण किया है। वे कहते हैं-"मनुष्य आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश कर क्षुद्र व्यक्तित्व से पार होकर पुरुषता में प्रवेश करता है। इस पुरुषता में प्रवेश करने में मनुष्य अपनी निजता खोता नहीं, वह केन्द्र रूप बना रहता है ; उसमें वृत्त का विस्तार बढ़ जाता है।
१-कृत्स्नकर्मक्षयादात्मनः स्वरूपेऽवस्थानं मोक्षः (जैन पृ० ५ सू० ३६) २-पाश्चात्य दर्शन का इतिहास-- कथिली पृ० ३१२ ३--वही-पृ. १२६ ४- वही-पृ. ७५ ५-पाश्चात्य दर्शनों का इतिहास-गुलाब राय पृ. ८४ ६-वही-पृ. २४