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इसके संयोजकों का उत्तरदायित्व भी विशाल हो रहा है, अतः पहले से ही विशेष ध्यान देने की अपेक्षा हो जाती है ।
कई वर्षों से मेरे मस्तिष्क में यह चिन्तन चल रहा था कि जैन-विद्वानों का एक ऐसा समन्वय-मंत्र हो, जिसमें सभी विद्वान् मुक्त रूप से अपने विचारों का आदान-प्रदान कर सकें और जैन दर्शन के तत्व-चिंतन को सम्मिलित रूप से प्रकाश में ला सकें ।
जब जब
प्राचीन इतिहास के सिंहावलोकन से ऐसा लगता है कि पहले जैन धर्म बहुत व्यापक था किन्तु बाद में जातिवाद आदि कई कारणों से वह वर्ग विशेष तक ही सीमित रह गया और विकास अवरुद्ध हो गया । जैन संस्कृति के उस व्यापक रूप पर मेरा ध्यान जाता तो मैं मन-ही-मन में बैचेन सा हो उठता था, इसलिए मैंने उस पर गहराई से चिन्तन किया । साधु साध्वियों में वातावरण बनाया और अणुव्रत आन्दोलन के द्वारा उसे क्रियान्वित कर दिखाया। मैं उसी का ही सुपरिणाम मानता हूँ कि परिषद् का यह कार्यक्रम दूसरे वर्ष में प्रविष्ट हो रहा है। मेरा यह निश्चित मत है कि धर्म और दर्शन जैसे विशाल तत्त्वों को हम छोटे दायरे में नहीं बांध सकते | ये उतने ही व्यापक है जितना कि सूर्य का प्रकाश और चन्द्रमा की चाँदनी । इन उन्मुक्त तत्त्वों पर किसी सम्प्रदाय, जाति या व्यक्ति विशेष का अधिकार करना संकीर्ण मनोवृत्ति का द्योतक है। हमने उस दायरे को लांघकर सोचने का प्रयत्न किया है। उसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रथम कड़ी के रूप में बम्बई में जैन एकता के लिए पंचसूत्री कार्यक्रम का सूत्रपात किया था। मुझे प्रसन्नता है कि उनके प्रचार-प्रसार से अन्य सम्प्रदायों से काफी निकटता का सम्बन्ध स्थापित हुआ है और तेरापंथ समाज के प्रति होने वाली अनर्गल आलोचना की वृत्ति प्रायः नामशेष ही रही है। हमारे साधु-साध्वियों ने नव निर्मित साहित्य तथा प्रचार-प्रसार की प्रणाली के द्वारा इस विषय को काफी पुष्ट किया है। देखा जाय तो तत्त्व चिन्तन काफी गहरा है, लोगों में उसे जानने की भूख भी जगी है। अतः अब 'आवश्यकता है उहें प्रामाणिक एवं आधुनिक ढंग से जन साधारण के सामने प्रस्तुत करने की । हमारे साधु-साध्वी इस कार्य में तत्परता से लगे हैं। आप लोग भी युग को पहचान कर ऐसे साहित्य सृजन की ओर ध्यान दें, जो प्रत्येक को विशिष्ट खुराक देने के साथ-साथ जीवन परिमार्जन की पद्धति पर भी प्रकाश डाल सके ।