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इन सबका मूल है---धर्म | धर्म की पृष्ठभूमि में ही ये सारी बातें प्रस्फुटित होती है। आप देखिये, जितना भी साहित्य तैयार हुआ है रघुवंश आदि का, 'अगर उसमें धर्म की, चरित्र की पुट नहीं होती तो इन सारे साहित्य का भारत में कोई भी सम्मान नहीं करता। ये सारे के सारे साहित्यिक ग्रन्थ धर्म आधार पर ही प्रसिद्ध हुए हैं । चरित्र इन सबका केन्द्र बिन्दु है, सचमुच इस को केन्द्र में रखकर ही साहित्य का विकास किया जा सकता है।
आज का युग बुद्धिप्रधान है । इसलिए प्राचीन साहित्य की खोज हो रही है । पर जैन समाज पर जब मैं नजर पसारता हूँ तो मुझे कुछ कुण्ठित होना पड़ता है। जहाँ आज विद्वानों को सम्मान मिलना चाहिए, उन्हें प्रभय देना चाहिए वहाँ स्पर्धा की जाती है। अस्तु, सभी जैन बन्धुओं से अपील करूँगा कि वे दर्शन साहित्य की साधना में लगें और युवकों को इस और प्रेरणा देकर आगे बढ़ाए, इससे हमारा सर्व विकास संभव है।
अनन्तर शोधपत्रों का वाचन हुआ
१- श्री इन्द्रचन्दजी शास्त्री व्युत्सर्ग, जैन साधना का केन्द्र बिन्दु २- मुनिश्री नगराजजी -- तिरुक्कुरल ( तामिलवेद, एक जैन रचना )
श्री रामचन्द्रजी जैन एडवोकेट ने अपनी अंग्रेजी पुस्तक The Most Ancient Aryan Society” आचार्यश्री के चरणों में सादर समर्पित की।
मध्याह्नकालीन गोष्ठी गंगाशहर में ही आचार्यश्री के सान्निध्य में रखी गई।
गोष्ठी के अनन्तर कई शोध पत्रों का वाचन हुआ :
१ - मुनिश्री रूपचन्दजी - क्या त्रात्य भ्रमण थे ?
२- साध्वीश्री संघमित्राजी - शब्द- ( ध्वनि ) विज्ञान ।
३- श्री इगनलालजी शास्त्री पुण्य और पाप ।
शोध-पत्र के वाचनोपरान्त तद् विषयक कई प्रश्नोत्तर भी चले ।
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रात्रि में प्रार्थना के पश्चात् आचार्यश्री के सान्निध्य में एक मुक्त चिन्तन गोष्ठी का विशेष कार्यक्रम रखा गया। जिसमें सभी विद्वानों ने अपने-अपने उन्मुक्त विचार प्रस्तुत किये। इस अवसर पर परिषद् सम्बन्धित बनेक विषयों पर भी विचार विमर्श हुआ ।
अन्त में इस अवसर पर समागत विद्वानों को विशेष संदेश देते हुए आचार्यप्रवर ने कहा- परिषद् का अभी शैशव काल है, इसलिए यह अब तक सुव्यवस्थित नहीं हो पाई है पर ज्यों-ज्यों कार्य आगे बढ़ रहा है त्यों-त्यों