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- ऊपर समाधि की अवस्था है, जिसमें शाता-शेय का मेद सर्वथा विलुप्त सा हो जाता है, इसी को निर्बीज-समाधि कहते हैं; जिसमें पहुंचने पर दिव्य ज्ञान की ज्योति स्वयं प्रकाशित हो जाती है।" यहाँ दिव्य ज्ञान से पारमार्थिक प्रत्यक्ष के चरम रूप सकल प्रत्यक्ष केवल ज्ञान की ओर संकेत है। लॉक ने कहा - "हमारे ज्ञान में अर्थात् बुद्धि में कोई इन्द्रियों द्वारा प्राप्त न हुई हो।" इस पर लीबनीज ने बुद्धि उसमें शामिल नहीं है ।"
जैन दर्शन में भी मानस-ज्ञान और इन्द्रिय-ज्ञान को भिन्न माना है ।
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अनुभववाद के विवेचन में लॉक ने यह भी कहा - " अनुभव दो प्रकार का है - बाह्य प्रत्यक्ष और आन्तर प्रत्यक्ष । बाह्य प्रत्यक्ष पांचों इन्द्रियों का ज्ञान और प्रत्यक्ष अन्तःकरण का स्वसंवेदन । ११ काण्ट का यह कथन है कि "बुद्धि जिम जिस बात को सोचती है इन्द्रियाँ उनमें से हरेक को नहीं भी जानती " " ठीक जैन सम्मत अश्रुत निश्चित मति का विवेचन देता है ।
जैन दर्शन में भी ( प्रमाणों की लम्बी चर्चा में न जाएँ तो ) मुख्यतः दो ही प्रमाण माने गये है- प्रत्यक्ष और परोक्ष । परोक्ष की भाँति प्रत्यक्ष के भी अनेक प्रकार माने गये हैं -- १ - सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष ; २ - पारमार्थिक प्रत्यक्ष | पारमार्थिक प्रत्यक्ष को भी विकल" और सकल के भेदों से विभक्त किया गया है । इन्द्रियसापेक्ष को सांव्यवहारिक और निरपेक्ष को पारमार्थिक बताया गया है तथा मानस ज्ञान को इन्द्रिय-सापेक्ष 'ही माना है। जहाँ इन्द्रियनिरपेक्ष मानस ज्ञान होता है वह अश्रुत निश्चित मतिज्ञान कहलाता है ।
धारणा और स्मृति
डेविड ह्यूम स्मृति को धारणाजनित ही मानते हैं। में मुद्राएँ अज्ञात कारणों से ही उत्पन्न होती हैं।
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२ - पाश्चात्य दर्शन पृ० ३
३ -- प्रत्यक्षं च परोक्षं च (जैन० प्र०
ऐसी चीज नहीं जो कहा- " लेकिन स्वयं
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उन्होंने कहा - आत्मा फिर अनुमुद्राओं की
पृ० १३८
सू० २ ) ४- पारमार्थिकं सांव्यबहारिकं च ( जैन० प्र० ६ सू० ४ )
५ -- पारमार्थिकमपि द्विविधं विकलं सकलं च ( जैन० प्र० सू० ६ )
६ -- इन्द्रियसापेक्षं मनः ( मनोनुशासनं प० १ सू० २ )
७ - पाश्चात्य दर्शन का इतिहास ( फ्रैंकथिली पृ० १०२ )