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[ १३३ ] डेबिड म ने जो अपनी विचारधारा प्रस्तुत की सामान्य विशेषात्मक वस्तु की सिद्धि होती है। वे कल्पना में किसी ऐसी अदृश्य और अज्ञेय वस्तु की जो सारी विभिन्नताओं में भी समान रहे ।"
जैन दर्शन ने पदार्थ मात्र का गुण अर्थ - क्रियाकारित्व' माना है। 1 और पदार्थ का स्वरूप बतलाया है—उत्पाद', व्यय, प्रोव्यात्मक । तथा द्रव्य में दो प्रकार के गुण माने हैं- शाश्वत और अशाश्वत ओर वस्तु को सामान्य विशेषात्मक माना है । "
प्रत्यक्ष और परोक्ष
पाश्चात्य दर्शन में तत्त्व की भांति शान की भी दीघं मीमांसा है। ज्ञान के fafaध रूपों के आधार पर तो वहाँ नाना वाद प्रचलित हैं-बुद्धिवाद, अनुभव वाद आदि । उन लोगों का ज्ञान, ज्ञान के प्रकार व स्वरूप भी बहुत अंशों में जेन-दर्शन से मिलता-जुलता है।
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लाइवनित्स ने ज्ञान के दो प्रकार मानते हुए कहा है—स्पष्ट ज्ञान के अलावा अस्पष्ट ज्ञान भी होता है ।"
कान्ट ने कहा ज्ञान दो प्रकार का है- इन्द्रिय सापेक्ष और इन्द्रिय निरपेक्ष । प्लेटीनस इससे भी आगे बढ़ा। उसने प्रत्यक्ष को भी एक रूप नहीं माना । उसने प्रत्यक्ष को कई भागों में बांटा। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष, विकल प्रत्यक्ष, सकल प्रत्यक्ष । चाहे नाम इस रूप में न भी रखें हों लेकिन आशय में कहीं द्विरूपता नहीं है। उसने कहा - " बाह्य प्रत्यक्ष और तर्क दोनों से बढ़कर आन्तर' अनुभव है । पर आन्तर अनुभव या ध्यान केवल मानस तक ही पहुंच सकता है ।" यहाँ बाह्य प्रत्यक्ष से सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और आन्तर अनुभव से पारमार्थिक प्रत्यक्ष ही समझा जाता है। इससे आगे उन्होने कहा - "इससे
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१ - पाश्चात्य दर्शन का इतिहास ( फ्रैंकथिली )
२ - अर्थक्रियाकारित्वं वस्तुत्वं (जेन० प्र० १ सू० ४२ वृवि० ) ३—उत्पादव्ययत्रौव्यात्मकं सत् ( तत्वार्थ प० २८ पृ० २७० )
४- गुणापर्यांयाभयो द्रव्यं ( जैन० प्र० १ सू० )
५ – सामान्यविशेषनित्यानित्यसदसद् “वस्तु । जेन० प्र० २० सू० २८ ६ --- पाश्चात्य दर्शन का इतिहास ( फ्रैंकथिली ) पृ० १३५ |
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उससे जैनदर्शन सम्मत. लिखते हैं "इससे हम धारणा कर लेते हैं जो
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पृ. १६२ ।
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( गुलाबराय ) पृ० प