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असत् का उत्पाद नहीं पाश्चात्य दार्शनिक पानीडीज ने कहा-"सब संसार सत् स्वरूप है। असत् की स्थिति नहीं। सत् का आदि या अन्त नहीं होता। क्योंकि सत् से असत् होना और असत् से सत् होना दोनों ही अचिन्त्य हैं।" - हेमेल ने भी यही तथ्य दिया है। उन्होंने कहा-यह पदार्थ न सत् रूप है, न असत् रूप। लेकिन “हर सत्ता* उभयात्मक है। सत् , असत् दोनों ही उसमें है। इसलिये इनका कहीं समावेश भी होना चाहिये। सत् और असत् दोनों विरोधियों का समावेश भाव में होता है। भाव न केवल सत् है, और न असत् । संसार में जितने पदार्थ हैं-सत् असत् रूप हैं।"
जैनदर्शन का तो यह निरपवाद सिद्धान्त है कि सत् का विनाश और असत् का उत्पाद नहीं होता। भगवती में एक प्रकरण आया है-"काल की अपेक्षा जीव कभी नहीं था या न रहेगा यह बात नहीं। वह नित्य है, शाश्वत है। उसका कभी अन्त नहीं होता।" इसी तरह अन्यत्र एक विवेचन हैस्वरूप से सभी पदार्थ हैं पर रूप से कोई नहीं हैं। असत् का उत्पाद नहीं होता ; जो है वह सदा था और रहेगा।"
द्रव्य में गुण पर्याय और अर्थ क्रिया वस्तुओं के स्वरूप के विषय में रेने डेकार्ट के विचार हैं-"वस्तुएं चल भी है अचल भी। ...... अतः ऐसा कोई द्रव्य नहीं है जो क्रिया न करता हो। जो क्रिया नहीं करता उसकी सत्ता भी नहीं है।"
वर्कले की मान्यता है-"द्रव्य में दो प्रकार के गुण हैं। १-मूलगुण, २-उपगुण । ये ठीक द्रव्यगत गुण और पर्याय के वाचक है।" १-पाश्चात्य दर्शनों का इतिहास पृ० २८ (गुलाबराय) २- , , , पृ० २०१ , ३-भावस्स पत्थि नासो, णत्यि अभावस्स उप्पादो ( पंचास्तिकाय १५ ) ४-कालओणं जीवे ण कयावि ण आसि, णिच्चे गत्थि पुण से अन्ते ।
(भग० २. २. उ. १) ५-पाश्चात्य दर्शन का इतिहास पृ. १२२ (मैं कथिली) ६-पाश्चात्य दर्शन।