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[१८] संयोग होता है। दोनों के सम्पर्क होने पर पहले पहल व्यञ्जनावग्रह में अस्पष्ट शान होता है। किसी चीज का स्पर्श हुआ ऐसा भान होता है। अर्थावग्रह में जाति, लिङ्ग आदि के निर्देश बिना केवल शब्द का ग्रहण होता है। यह शब्द या स्पर्श ऐसा विकल्प उठाकर ईहा "श्रोत्र का विषय है अतः शब्द होना चाहिये" ऐसा निर्णय देती है। अवाय निश्चय के केन्द्र बिन्दु पर पहुँच जाता है। यह ईहा के पर्यालोचन को ही पुष्ट नहीं करता पर अपना विशेष निर्णय प्रस्तुत करता है। किसी भी शब्द को पकड़ते समय प्रत्येक बार यही क्रम रहता है। अवग्रह का अतिक्रमण कभी ईहा में और ईहा का अतिक्रमण कभी अवाय में नहीं हो सकता।
सुनने के समय इस क्रम का बोध प्रायः हमें नहीं होता पर गाढ़ नींद में सुप्त मनुष्य को जगाते समय इस क्रम को समझ सकते हैं। प्रथम बार तो उसे भान ही नहीं होता। दूसरी बार उसे कुछ-कुछ अनुभव होता है। तीसरी और चौथी बार में लगता है कि कोई मुझे जगा रहा है। क्या अन्तिम आवाज से ही वह जागा ? नहीं, हर आवाज ने उसके ज्ञान-तन्तुओं को मकमोरा है। पत्थर अन्तिम चोट से टूटता है, पर हर चोट उसे दुर्बल और कमजोर बनाती है। ___व्यञ्जनावग्रह' असंख्य समय का होता है, अर्थावग्रह एक समय का। ईहा और अवाय अन्तमहूर्त लेते हैं। धारणा संख्येय-असंख्येयकाल तक जीवित रहती है। सुनने का यह क्रम कितना वैज्ञानिक और यौगिक है। विज्ञान ने श्रवण पद्धति की इतनी सुन्दर व्याख्या अभी तक नहीं की है।
जैन दृष्टि से सभी प्रकार के पुद्गलस्कन्ध ध्वनि रूप में परिणित नही होते। प्रज्ञापना सूत्र में इस विषय पर बहुत ही सूक्ष्म विश्लेषण हुआ है।
आत्मा भाषा के लिए जिन पुद्गल' स्कन्धों को ग्रहण करती है, वे गति प्रवृत्त नहीं किन्तु स्थिर होते हैं। अनन्त प्रदेशी स्कन्ध होते हैं। असंख्य प्रदेशी और संख्येय प्रदेशी स्कन्ध भाषा के लिए अयोग्य है। परमाणु भी भाषा रूप में परिणित नहीं हो सकते। वे स्कन्ध असंख्यात् प्रदेशात्मक क्षेत्र को रोके हुए होते हैं। इससे कम क्षेत्र को रोकने वाले पुद्गल स्कन्ध कभी भाषा का आकार धारण नहीं करते। आत्म प्रदेशों से स्पृष्ट का ग्रहण होता है, अस्पृष्ट का ग्रहण नहीं होता। अवगाढ़ पुद्गलों का ग्रहण होता है, अनव
१-विशे०नि० भा० ४१३३३ । २-०प०११।२४