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[ 8 ] न्द्रिय'। द्रव्येन्द्रिय के दो मेद है-निवृत्ति और उपकरण। भोत्रेन्द्रिय का बाह्याकार निवृत्ति है। कर्ण-शम्कुली व कदम्ब के सदृश कान की बाहरी भीतरी बनावट है। निवृत्ति की शक्ति जो वह शब्द सुनने में उपकारक बनती है वह उपकरणेन्द्रिय है। ___ भावेन्द्रिय भी दो भागों में विभक्त है--लब्धि और उपयोग। श्रोत्रेन्द्रिय का जो स्वात्म-जन्य क्षयोपशम है वह लब्धि है। इसके बिना श्रोत्रे न्द्रिय उपलब्ध नहीं होती। सुनने में ध्यान केन्द्रित करना उपयोग है। इनमें लब्धीन्द्रिय का स्थान प्रथम है। फिर क्रमशः निवृत्ति, उपकरण और उपयोग बनता है। अनेकों शब्द निवृत्ति को छूकर चले जाते हैं। उपकरणेन्द्रिय के सहयोगाभाव में उन्हें सुन नहीं पाते। बहुत बार अन्य सब माध्यम काम करते हैं पर उपयोग के अभाव में सुनाई नहीं देते। चारों प्रकार जब काम करते हैं तब ध्वनि जीव को सुनाई देती है।
विज्ञान मानता है कि प्रत्येक आदमी के दो कान होते हैं। एक तो कान का बाहरी भाग जो हमें दिखाई देता है, जो ध्वनि को ग्रहण करके अन्दर पहुँचाता है। इसमें एक नली होती है, जिसके बाहरी सिरे पर बाल होते हैं। ये कानों की रक्षा करते हैं। इससे आगे झिल्ली होती है। इस झिल्ली पर जाकर जब ध्वनि टकराती है तब मस्तिष्क में फैले हुए ज्ञानतन्तु, जो सुनने की क्षमता रखते हैं, इस ध्वनि को पकड़ लेते हैं। किसी कारण वश यदि कान का पर्दा फट जाय तो मनुष्य बहरा हो जाता है। ज्ञानतन्तु सुरक्षित रहने पर भी सुन नहीं पाते। ध्यान विकेन्द्रित रहने पर भी सुन नहीं पाते। जैन दृष्टि के अनुसार सुनने में भी एक क्रम रहता है। इन्द्रियाँ पहले स्थल रूप को पकड़ती हैं, क्रमशः उसके सूक्ष्म रूप का निणय करती हुई आगे बढ़ती हैं। इस क्रम को अवग्रहादि संकेतों में स्पष्ट किया गया है। ___ इन्द्रिय और पदार्थ का संयोग दर्शन है। इसे बौद्ध-दर्शन में 'सामीप्य' और नैयायिक-दर्शन में 'सन्निकर्ष' कहा जाता है। दर्शनान्तर पहले पहल जो अव्यक्त ज्ञान होता है वह व्यञ्जनावग्रह है। वस्तु का ग्रहण अर्थावग्रह है। यह व्यञ्जनावग्रह से कुछ विशद होता है। स्वरूप निश्चय में विकल्प उठाकर सम्यग पक्ष के निर्णय पर पहुंचना 'ईहा' है। दृढ़ निश्चय हो जाना 'अवाय' है। लम्बे समय तक ज्ञान का संस्कारों में बल पकड़ लेना 'धारणा' है।
शब्द-शान भी हमें इसी क्रम से होता है। सर्वप्रथम शब्द और कानका १-जैत सि०प्र०२