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________________ [ ६६ ] भाषात्मक भी । हमारे कंठों से उत्पन्न ध्वनि दोनों प्रकार की है । भाषात्मक safe अर्थ विशेष को अभिव्यक्त करती है और अभाषात्मक ध्वनि अर्थ शून्य होती है । प्रकारान्तर से शब्द को निम्न तीन भागों में विभक्त किया गया है : १ - जीव शब्द २ - अजीव शब्द ३ --- मिश्र शब्द केवल मनुष्य के प्रयत्न से उत्पन्न शब्द जीव- शब्द है - जैसे मनुष्य की भाषा । जिसमें जीव का प्रयत्न न हो वह अजीव शब्द है- जैसे मेघ की गड़गड़ाहट । जीव अजीव के समवेत प्रयत्न से उत्पन्न शब्द मिश्रशब्द कहलाता है जैसे वीणा बजाते समय मुख से निष्पन्न शब्द । विज्ञान ने ध्वनि के इतने भेद-प्रभेद नहीं किये हैं । उनकी दृष्टि में ध्वनि के दो ही भेद हैं- संगीतमय और कोलाहलमय । शब्दोत्पत्ति की प्रक्रिया विज्ञान मानता है- ध्वनि मात्र प्रकम्पन की प्रक्रिया है । शब्दोत्पादक सभी वस्तुएं कम्पन करती हैं। बिना प्रकम्पन के कभी ध्वनि पैदा नहीं होती। घंटी कम्पन करती है तब ध्वनि उठती है। स्थिर घंटो में कभी आवाज नहीं निकलती । ट्यूनिंग फौर्क फौलाद की छड़ का बना होता है । FU (यू) के आकार में मुड़ा रहता है। इसमें किसी भी माधन से प्रकम्पन उत्पन्न किया जाय तो 'मधुरध्वनि' निकलती है। तब इसके किनारे स्पष्ट हिलते हुए दिखाई देते हैं । जब इसमें कम्पन बन्द हो जाता है तब ध्वनि भी बन्द हो जाती है। जैनागम कहते हैं : ---यह शरीर प्रतिक्षण किसी न किसी रूप में कम्पन करता है 1 निष्कम्प अवस्था केवल चतुर्दश' गुणस्थान में व्यक्त होती है । प्रकम्पितदेह पोद्गलिक वर्गणाओं को अपनी ओर खींचती है। आत्मा जब बोलने का प्रयत्न करती है तब शरीर का कण्ठ भाग प्रकम्पित होता है । कम्पन के साथ ध्वनि सुनाई देती है। यह ध्वनि पौद्गलिक है । काय-योग आकृष्ट कर्म पुद्गलस्कन्ध स्वयं शब्द का आकार लेते हैं । परिणत होते हैं । इस से भाषा रूप में श्रवण-विज्ञान शब्द श्रोत्रेन्द्रिय का विषय है । प्रत्येक इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय को ग्रहण करती हैं । श्रोत्रेन्द्रिय दो भेदों में विभक्त है— द्रव्येन्द्रिय और भावे १ - जैन सि० प्र० ८ सू०
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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