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________________ [ हर ] कि पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण सभी दिशाओं में यायावर के रूप में परिभ्रमण करते रहते और लोगों को अध्यात्म-साधना का उपदेश देते । श्री जयचन्द्र विद्यालंकार ने भी प्रात्यों को अर्धतों का अनुयायी माना है। वे लिखते हैं-वेदिक से भिन्न मार्ग बुद्ध और महावीर से पहले भी भारत में थे । अर्हत् लोग बुद्ध से पहले थे 1 उन अर्हतों और चेत्यों के अनुयायी 'वाय' कहलाते थे, जिनका उल्लेख अथर्ववेद में भी है। ' व्रात्य का जो स्वरूप अथर्ववेद में दिखलाया गया है, उससे यह स्वयं प्रमाणित होता है कि वह कोई आत्म सम्पन्न और आध्यात्मिक पथ- दर्शक था, जिससे प्रेरणा या स्वयं प्रजापति ने अपनी सुवर्णमय आत्मा को पहचाना | विशेष साधना - सम्पन्न और आत्म-द्रष्टा व्यक्ति के बिना प्रजापति की प्रेरणा देने की कल्पना नहीं की जा सकती । इसके अतिरिक्त व्रात्य काण्ड के कुछ अन्य सूक्त भी इसी भावना का समर्थन करते दिखलाई देते हैं। जैसे कि "स संवत्सरमूर्ध्वोऽतिष्ठत् तं देवा अत्र बन्. व्रात्य ! किं नु तिष्ठसीति". वह संवत्सर तक खड़ा रहा। उससे देवों ने पूछा- वात्य ! तू क्यों खड़ा है ?" आचार्यश्री तुलसी ने अपने निबन्ध 'भ्रमण संस्कृति का प्राग्वैदिक अस्तित्व' में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के जीवन के साथ इसकी तुलना की है। उनके अनुसार यह सूक्त ऋषभदेव की उस अवस्था का चित्रण करता है ; जब कि दीक्षित होने के बाद एक संवत्सर तक वे तपस्या में स्थिर रहे थे । एक वर्ष तक भोजन न करने पर भी शरीर में पुष्टि और दीप्ति को धारण कर रहे थे ' एक अन्य सूत्र कहता है वह अनावृत दिशा में चला। इससे ( उसने ) सोचा (अब) न लौटूंगा । * जिस दिशा में चलने वाले का आवर्तन नहीं होता अह अनावृत दिशा है। इसलिए उसने सोचा कि मैं अब न लोदूंगा । मुक्त पुरुष का हो प्रत्यावर्तन नहीं होता । " भ० ऋषम के लिए भी यही कहा जाता है। कि अन्त में वे अपुनरावृत्ति स्थान की प्राप्त हुए, जहाँ जाने के पश्चात् कोई वापस लौटकर नहीं आता । १ - भारतीय इतिहास की रूपरेखा पृ० ३४६ २ -- अथर्ववेद १५/१/३/१ ३- जैन भारती वर्ष १२ अंक ८ ४---अथर्ववेद १५/११६ १४ ५ अथववेदीय जात्यकाण्डम् पृ० ३६
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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