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इसी प्रकार और भी अनेक सूक्त ऐसे हैं जो कि व्रात्य की महत्ता और तत्कालीन भारतीय समाज पर उनका प्रभाव व्यक्त करते हैं। सायण ने ब्रात्य के लिए 'विद्वत्तम' के साथ 'कर्मपरे ब्राह्मणेर्विद्विष्टं यह विशेषण रखा है, इससे हम ब्रात्यों की तत्कालीन स्वरूप की कोई कल्पना नहीं कर सकते । आज के पाठक को यह संदेह है कि सायण इस कांड के हार्द को कदाचित् समग्रता से पकड़ पाया है। क्योंकि सायण तक पहुँचते-पहुँचते व्रात्य अपने प्राग्वेदिक और वैदिक अर्थ - परंपरा से बहुत नीचे खिसक आया है ।
लेकिन इतना अवश्य निश्चित है कि आयों के मन में वात्यों के प्रति मानसिक घृणा अवश्य थी। चूँकि वे आर्य एक लम्बे संघर्ष के बाद भी जब उन्हें परास्त न कर सके, या विजयी होने पर भी सुख से नहीं बैठ सके या जीवन के आध्यात्मिक क्षेत्र में अपना प्रभुत्व नहीं जमा सके, तभी उन्होंने व्रात्यों को सम्मान दिया, ऐसा लगता है। ऋग्वेद में उसका कोई उल्लेख न होकर, अथर्ववेद ( जिसकी रचना ऋग्वेद से करीब दो तीन शताब्दी पश्चात् मानी जाती है ) में इतनी गरिमा मिलना इस तथ्य की ओर संकेत करता है कि व्यपने से भिन्न संस्कृति और भिन्न विचारों के होते हुए भी आर्यों को विवश होकर अपने साहित्य में उन्हें स्थान देना पड़ा। आय से भिन्न होने और सहजतया सम्मान्य न होने का समर्थन हमें एक अन्य सूक्त से भी मिलता है। वहाँ कहा गया है - " तब जिस राजा के घर पर ऐसा विद्वान् व्रात्य अतिथि ( होकर ) आए, ( वह राजा ) इस ( विद्वान के आगमन) को अपने लिये कल्याणकारी माने । ऐसा ( करने से ) वह क्षत्र तथा राष्ट्र के प्रति अपराध नहीं करता । "
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एक आई • सिन्दे ने अपने ग्रन्थ 'The Riligion and Philosophy of Atharva Veda' में व्रात्यों को आय से पृथक माना है। वे लिखते हैं " " वस्तुतः व्रात्य कर्मकांडी ब्राह्मणों से बाहर के थे। लेकिन अथर्ववेद ने उन्हें आय में सम्मिलित ही नहीं किया, उनमें से उत्तम साधना करनेवालों को उच्चतम सम्मान भी दिया ।"
१ - अथर्ववेद १५/२/३/१२
2 - Vratyas were outside the pale of the orhodox - Aryans, The Atharva Veda not only admitted them in the Aryan fold but made the most rightons of them, the highest divinity. (P. 7.)