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पूर्वक व्रत स्वीकार किये हों वह पात्य है। ) इसी प्रसंग में वात्य का प्रवृत्तिलभ्य अर्थ देते हुए वे लिखते हैं: “Vratyas as a class of Heterodox Nomadic Holyman' व्रात्य यानि विभिन्न जातियों के दिगम्बर पवित्र मनुष्यों का संघ। __ जब हम 'व्रत' को वात्स का मूल मान लेते हैं, प्रात्यों को भ्रमण परम्परा का मान लेना तब कोई दुरुह कल्पना नहीं है। व्रतों की विधि परम्परा श्रमण संस्कृति की अपनी सर्वथा स्वतन्त्र मौलिक देन है। इसके ( श्रमण परम्परा) अनुसार इस अवसर्पिणी के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से ही साधना पद्धति में व्रतों का प्रमुख स्थान रहा है ; जब कि वेदों के परवतीं साहित्य में व्रतों का विधान अवश्य मिलता है, पहले नहीं। अतः यह निश्चित है कि ब्राह्मणों से साधनापद्धति में व्रतों का स्वरूप श्रमण-परम्परा से ही लिया गया है।
दूसरे में, ब्रात्य-काण्ड के पहले सूक्त में प्रात्य का विशेषण 'आसीदीयमान' शब्द भी श्रमण संस्कृति की ओर संकेत करता है। 'आसीदीयमान' का अर्थ है पर्यटन करता हुआ। ऐसा लगता है, निरन्तर परिभ्रमण करते रहना उस व्रात्य की प्रधान चर्चा थी। 'स उदतिष्ठत् स प्राचीदिशमनुष्यचलत्'२ ‘स उदतिष्ठत् स प्रतीची दिशमनुव्यचलत्। 'स उदतिष्ठत् स उदीची दिशमनुव्यचलत्" आदि विभिन्न सूक्त इस ओर संकेत करते हैं कि उसकी यात्रा का क्षेत्र सीमित नहीं था, सभी दिशाओं में यह निर्बन्ध रूप से धूमता था। अप्रतिबन्ध रूप से पर्यटन करते रहना श्रमणों का आज भी अनिवार्य नियम है। इस परम्परा में साधु के लिए यह विधान है कि वह वर्षावास के अतिरिक्त किसी भी स्थान में दीर्घकाल तक स्थिर न हो, पर्यटन करता रहे।" डा० ग्रीफिय ने व्रात्य को 'परिव्राजक धार्मिक पुरुष' के रूप में स्वीकार किया है। इसका सारांश यही निकल सकता है कि आयौँ से पहले भी भारत में इस प्रकार के लोग थे, जो १.--History And Doctrines of Ajivakas. By A.L. Bhasham
P.8 २-अथर्ववेद १५११ ३-, १५॥१२।१५ ४-, १५१रा ५-दशव• चूलिका २ ६---History of Dharmashastra. By Dr. Kanne, Vol. II,
Part I, P. 38