________________
[ . ] पहले हम बात्य शब्द को ही लें। इसके व्युत्पतिलभ्य अर्थ में भी नाना अटकलबाजियों लगाई जाती रही है। डा. प्रीफिथ अथर्ववेद के अंग्रेजी अनुबाद ( १५ वा काण्ड ) में इसकी व्युत्पत्ति देते हुए लिखते है-"वात्य शब्द 'बात' से बना है। बात का अर्थ है-समूह और वात्य का अर्थ है आर्यों से बहिष्कृत जत्थे का सरदार । वह ब्राह्मणों के शासन से सर्वथा मुक्त और ब्राह्मणों के मार्ग पर नहीं चलने वाला होता है।" किन्तु पन्द्रहवें काण्ड में इस अर्थ से उत्पन्न विसंगति को दूर करने के लिए डा० ग्रीफिथ इसकी पाद-टिप्पणी में लिखते हैं--"इस अपूर्व रहस्यमय काण्ड का प्रयोजन वात्य को आदर्श बनाना
और उसकी बढ़ी-चढ़ी प्रशंसा करना मात्र है।" मैं सोचता हूँ इस मिथ्या धारणा का कारण सम्भवतः यही रहा है कि इन लोगों ने यहाँ पर प्रयुक्त व्रात्य शब्द को मनुस्मृति तथा उत्तरकालीन ब्राह्मण ग्रन्थों के सन्दर्भ में ही पढ़ा है। अन्यथा इसका यह अर्थ स्वयं कोशकारों को भी मान्य नहीं रहा है। अभिधान चिन्तामणि की स्वोपश टीका में आचार्य हेमचन्द्र स्पष्ट शब्दों में लिखते हैं
बाते वृन्दे साधुरिति वा पृथक् व्यपदेश्यो न इत्यर्थः ।
दूसरे में, बहिष्कृत समूह का नेता होने मात्र से उसका उल्लेख और विस्तृत प्रशस्ति की जाए, यह नहीं जंचता। उपाध्याय ओफाष्ट इसी उलझन को सुलझाने का असफल प्रयास करते हुए लिखते हैं-"जो व्रात्य विशेष प्रायश्चित्त करने के वाद उपनीत हो जाता था और ब्राह्मण आर्यों में प्रवेश पा लेता था, उसके लिए ही यह प्रशंसा लिखी गई है। किन्तु इसे मात्र अपनी कल्पना के अतिरिक्त अधिक स्थान नहीं दिया जा सकता।
वस्तुतः 'वात्य' शब्द 'व्रत' से बना है। इसका मूल ''-वरणे है। "त्रियते यद तद् व्रतम्, व्रते साधुः कुशलो वा इति वात्यः।" व्रत का अर्थ है धार्मिक-संकल्प,
और जो संकल्पों में साधु है, कुशल है वह व्रात्य है। डा. हेवर इस शब्द का विश्लेषण देते हुए लिखते हैं- "Vratya as initiated in Vratas. Hence Vratya means a person who has voluntarily accepted the moral code of vows for his own spiritual discipline" ( ATRI का अर्थ है व्रतों में दीक्षित । यानि जिसने आत्मानुशासन की दृष्टि से स्वेच्छा
१-अथर्ववेद संहिता (तृतीय खण्ड भूमिका पृ. ३६-६ श्री जयदेव शर्मा)। २-अभिधान चिन्तामणि श५१८ । ३-अथर्ववेद संहिता (तृतीय खण्ड भूमिका पृ० ३६)।