________________
[ ६ ]
अथर्ववेदीय धूलिकोपनिषत् और यहुर्वेदीय मन्त्रिकोपनिषद् में काम सूक को औपनिषदिक ब्रह्मविद्या या आत्म-विद्या का निश्पक सूक माना है। आपस्तम्ब धर्मसूत्र ने अतिथि की शुश्रूषा करने के लिए ही मात्व सूत का उल्लेख माना है। पूज्य, गुरु, बाचार्य, स्नातक, तपस्वी, राजा आदि सभी को समान्यतः 'वात्य' शब्द से ही सम्बोधित करने का आदेश है।
अथर्ववेद में पन्द्रहवें काण्ड का प्रारम्भ जिस प्रकार से होता है, उससे लगता है कि इसका सम्बन्ध किसी आर्मेतर परम्परा से होना चाहिये । प्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान ब्लूम फील्ड ( Bloomfeild ) इस काण्ड को शेष-दर्शन का प्रतिनिधि मानते हैं । जिसके आधार में इस सूक्त में प्रयुक्त नील-लोहित, ईशान, महादेव आदि शब्दों का आश्रय लेते है। किन्तु यह कल्पना यथार्थ नहीं लगती । केवल शब्दों के आधार पर तो अनेक विरोधी परम्पराओं का आकलन किया जा सकता है । किन्तु यह अवश्य सत्य के निकट प्रतीत होता है कि इसका सम्बन्ध किसी अन्य परम्परा से ही होना चाहिये । प्रारम्भ का सूक्त इस प्रकार “व्रात्य आसीदीयमान एव स प्रजापति समैरयत् - - वात्य ने अपने पर्यटन में प्रजापति को प्रेरणा दो। इसमें प्रयुक्त 'आसीदीयमान' और 'प्रजापति' 'समैरयत्' ये दोनों पद अपना विशेष महत्त्व रखते हैं, जिसकी मीमांसा मैं आगे करना चाहूँगा । उससे ठीक आगे का उल्लेख तो और भी महत्त्व का है जिसमें कहा गया है- " स प्रजापतिः सुवर्णमात्मन्नपश्यत् " - उस प्रजापति ने अपने में सुवर्ण ( आत्मा ) को देखा।' इसके आगे सम्पूर्ण काण्ड ही 'वात्य' की गरिमा से भरा है ।
प्रश्न यह होता है कि यह वात्य आखिर कौन है, जो कि प्रजापति को भी प्रेरणा देने में समर्थ है। डा० सम्पूर्णानन्द इसका अर्थ 'परमात्मा' करते हैं। यद्यपि इस काण्ड के अपने अनुवाद की भूमिका में वे स्वयं स्वीकार करते हैं कि अशिकांशतः पाश्चात्य विद्वानों का अभिमत यह है कि यह प्रसंग किन्हीं परिभ्रमणशील मुनियों की प्रशंसा में रचा हुआ होना चाहिये। किन्तु उन्हें स्वयं परमात्मा अर्थ ही स्वीकार है। बलदेव उपाध्याय भी इसी का समर्थन करते हैं । किन्तु समूचे बाल काण्ड का अनुशीलन करने पर यह अर्थ संगत नहीं लगता। मेरा अनुमान है इसका सही अर्थ पाने में 'वात्य' शब्द और 'प्रात्य tatus' का पहला सूक्त भी हमारे लिए काफी सहयोगी हो सकेगा ।
१- अथर्ववेद - १५|१|१|३
२ -- अथर्ववेदीय ब्रात्मकाण्डम् सम्पूर्णानन्द ( भूमिका १२ ) ।