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[ ८ ]
मनुस्मृति में इसके संदर्भ में कहा गया है :
"अत ऊष्ण त्रयोऽप्येते, यथाकालमसंस्कृताः । सावित्रीपतिता ब्रात्या, भवन्त्यार्यविगर्हिताः ॥"
क्षत्रिय, वैश्य तथा ब्राह्मण योग्य अवस्था प्राप्त करने पर भी असंस्कृत
है वे मात्य हैं और वे आयों के द्वारा मर्हणीय है।'
एक अन्य प्रकरण में मनुस्मृतिकार लिखते हैं-. सवर्णा,
"द्विजातयः
जनयन्त्यव्रतांस्तु तान् । तान् सावित्री - परिभ्रष्टान्, बाह्यानिति विनिर्दिशेत् ॥”
जो ब्राह्मण - संतति उपनयन आदि व्रतों से रहित हो, उस गुरु मंत्र के परिभ्रष्ट मनुष्य को 'वात्य' नाम से निर्दिष्ट किया जाए। * 'वात्य-स्तोत्र' के लिए कहा गया गया है कि इसके संस्कृत होकर पुनः यज्ञादि के अधिकारी होते हैं।
इसी ब्राह्मण भाग पर
चार्य का भाष्य है जिसमें उन्होंने 'वात्य' का अर्थ आचारहीन ही किया है-
ताण्ड्य महाब्राह्मण में पाठ से वात्य मी शुद्ध,
"ब्रात्यान् व्रात्यता आचारहीनतां प्राप्य प्रबसन्तः प्रवासं कुर्वतः ।" किन्तु इनके पूर्ववर्ती किसी भी ग्रन्थ को वात्य का यह अर्थ स्वीकार नहीं है । प्रत्युत इससे सर्वथा विपरीत अर्थ प्रचलित मिलता है । इस शब्द का पहला उल्लेख हमें अथर्ववेद के पन्द्रहवें काण्ड में मिलता है जो कि 'वात्य काण्ड' इस अभिधा से ही अभिहित है। इसकी भूमिका में भाष्यकार सायण लिखते हैंइसमें व्रात्य की स्तुति की गई है। उपनयन आदि से हीन मनुष्य 'ब्रात्य' कहलाता है। ऐसे मनुष्य को लोग वैदिक कृत्यों के लिए अनधिकारी और सामान्यतःपतित मानते हैं, परन्तु यदि कोई व्रात्य ऐसा ही हो जो विद्वान् और तपस्वी हो तो ब्राह्मण उससे भले ही विद्वेष करे, परन्तु वह सर्व पूज्य होगा, और देवाधिदेव परमात्मा के तुल्य होगा। उसी स्थल पर उन्होंने व्रात्य को 'बितम', 'महाधिकार', 'पुण्यशील' और 'विश्वसम्मान्य' आदि विशेषणों से विशिष्ट किया है।
१- मनुस्मृति १५१८
२- मनुस्मृति १०/२०
३- हीना वा एते । हीयन्ते ये व्रात्यां प्रवसन्ति । ......
स्तोमः समाप्तुमहति ।
४- अथर्व वेद - १५/१११११
• षोडशो का एतत्