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जैन-भक्तिकाव्यकी पृष्ठभूमि
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२-श्रुत-भक्ति 'श्रुतकी परिभाषा ___ श्रुत ज्ञानावरणका क्षयोपशम होनेपर निरूप्यमाण पदार्थ जिसके द्वारा सुना जाता है, जो सुनता है या सुनना मात्र 'श्रुत' कहलाता है। वह एक ज्ञानविशेषके अर्थमें निबद्ध है। आचार्य श्रुतसागरने तत्त्वार्थवृत्तिमें लिखा है, . "श्रवणं श्रुतं ज्ञानविशेष इत्यर्थः, न तु श्रवणमात्रम् । श्रवणं श्रुतमित्युक्ते श्रवणमात्रं न भवति, किन्तु ज्ञानविशेषः ।" पहले लेखनक्रियाका जन्म न होनेके कारण, समूचा ज्ञान गुरु-शिष्य परम्परासे सुन-सुनकर ही प्राप्त होता था। शास्त्रोंमें निबद्ध होनेके पश्चात् भी वह श्रुत संज्ञासे ही अभिहित होता रहा । जैनाचार्योंके अनुसार वे हो शास्त्र श्रुत कहलायेंगे, जिनमें भगवान्को दिव्य ध्वनिका प्रतिनिधित्व हुआ हो । श्रुत-साहित्य
श्रुतके दो भेद है-अङ्ग-बाह्य और अङ्ग-प्रविष्ट । अङ्ग-बाहके दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि अनेक भेद हैं । अङ्ग-प्रविष्टके १२ भेद है । . १. तदावरणकर्मक्षयोपशमे सति निरूप्यमाणं श्रूयते अनेन तत् श्रुणोति
श्रवणमात्रं वा श्रुतम् । आचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि : पं० फूलचन्द्र सम्पादित, हिन्दी-अनूदित,
भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, वि० सं० २०१२, ११९, पृ० ९४ । २. आचार्य श्रुतसागर, तत्त्वार्थवृत्ति : पं. महेन्द्रकुमार सम्पादित, हिन्दी
अनूदित, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, मार्च १९४९, ११२०, पृ० ६५। आप्तोपशमनुलंध्यमदृष्टेष्ट-विरोधकम् । तत्वोपदेशकृत् सार्व शाकं कापथ-घट्टनम् ॥ आचार्यसमन्तभद्र, समोचीन धर्मशास्त्र : पं० जुगुल किशोर मुख्तार
सम्पादित, वीरसेवामन्दिर, दिल्ली, अप्रैल १९५५, १।९, पृ० ४३ । ४. द्विभेदं तावत्-अङ्गबासमाविष्टमिति। अङ्गबाझमनेकविधं दशकालिको
त्तराध्ययनादि । अङ्गप्रविष्टं द्वादशविधम् । तथा-प्राचारः, सूत्रकृतं, स्थानं, समवायः, व्याख्याप्राप्तिः, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकाध्ययनं, अन्तकृशं, अनुत्तरौपपादिकदशं, प्रश्नध्याकरणं, विपाकसूत्रं, दृष्टिवाद
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भाचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि : पं० फूलचन्द्र सम्पादित, काशी, २०१२ वि० सं०, ११२०, पृ० १२३ ।