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जैन-मक्तिके भेद अर्थात् वे संसार-समुद्रमें डूबे जीवोंको निकालकर वहाँ बैठानेमें समर्थ है, जहाँ वह स्वयं विराजमान हैं । उनके मतमें सिद्ध परमेष्ठी केवल मोक्ष या परमसुख ही नहीं; अपितु परम ऐश्वर्य भी प्रदान करते हैं। बहुत बड़ा पापी भी उनकी भक्ति कर अपने पापोंसे छुटकारा पा जाता है।
श्री योगोन्दुने उन सिद्धोंको नमस्कार किया है, जो परम समाधिको धारण करनेवाले, कल्याणमय, अनुपम और ज्ञानमय हैं । यद्यपि वे तीनों लोकोंमें गुरु ( भारी ) हैं, फिर भी संसार-समुद्र में डूबते नहीं । यह आश्चर्य है, क्योंकि भारी वस्तु जल्दी डूब जाती है। इसका अर्थ है कि सिद्ध, गुरु अर्थात् सबसे बड़े हैं । संसार-समुद्रको पार करके ही वे मोक्षमें विराजे हैं ।
श्री शान्तिसूरिने 'चेइयवंदणमहाभासं' में, सिद्धोंको सिर झुकाना सर्वोत्तम भाव-नमस्कार माना है। आचार्य सोमदेवका कथन है कि सिद्धोंकी भक्तिसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप तीन प्रकारके रत्न उपलब्ध होते हैं।
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१. यद्भक्त्या शमिताकृशाधमरुज तिजनः स्वालये
ये सद्भोगकदायतीव यजते ते मे जिनाः सुश्रिये ॥
देखिए वही : ११६वाँ पद्य, पृ० १४१ । २. ते वंदउँ सिरि-सिद्ध-गण होसहि जे वि अणंत ।
सिवमय-णिरुवम-णाणमय परम-समाहि भजंत ॥ योगीन्दु, परमात्मप्रकाश : श्री आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये सम्पादित,
बम्बई, १९३७ ई०, १२, पृ०८। ३. पाणिं तिहुयणि गरुया वि भवसायरि ण पडंति ॥
देखिए वही : ११४, पृ० १० । ४. नणु सिद्धमेव भगवओ, एसो सम्वोत्तमो नमोकारो।
आणाणुपालणत्थं, मावनमोकाररूव त्ति ॥ श्रीशान्तिसूरि, चेइयवंदणमहामासं :श्री मुनि चतुरविजय और पं० बेचरदास सम्पादित, श्री जैन आत्मानन्दसभा, श्री आत्मानन्द अन्यरत्नमाला ६९,
मावनगर, वि० सं० १९७७, ७५१वाँ पद्य, पृ० १३५ । ५. कालेषु त्रिषु मुक्तिसंगमजुषः स्तुत्यास्त्रिमिर्विष्टपै.
स्ते रखत्रयमङ्गलानि दधतां मन्येषु रखाकराः॥ K. K. Handiqui, Yasastilaka and Indian Culture, Jain Samskriti Samrakshaka Sangha, Sholapur, 1949,पृ. ३११ ।