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जैन-मक्तिके अंग के उत्तरपुराण', और पुष्पदन्त ( १०वीं शताब्दी ईसवी )के महापुराण में तीर्थकरोंके जन्मोत्सवका विशद वर्णन हुआ है।
इस अवसरपर इन्द्र; इन्द्राणी और अन्य देवताओंके साथ स्वर्गसे आता है, और बाल-भगवान्को जन्माभिषेकके लिए पाण्डुक शिलापर ले जाता है। लौट आनेपर वह ताण्डव-नत्य करता है। विक्रियाऋद्धिसे बनाये गये सहस्र-हाथ, उसके नृत्यमें सहायक होते हैं। चंचल हाथोंवाला वह इन्द्र ऐसा प्रतीत होता है, जैसे सहस्रों हिलती शाखाओंसे युक्त कल्पवृक्ष ही हो। उसको एक-एक भुजापर एक-एक अप्सरा नृत्य करती है । जैन-उत्सवोंमें नाटकोंका आयोजन
जन्मोत्सवके अवसरपर इन्द्र नाटकका आयोजन भी करता है। उसमें भगवानके गर्भावतरण और जन्म-सम्बन्धी कथानकोंका अभिनय होता है।
भगवान्के समवसरणकी रचनामें नाट्यशालाओंका भी निर्माण किया जाता है। गोपुर-दरवाजोंके भीतर, चौड़े रास्तेके दोनों ओर, दो नाट्यशालाएँ होती है, इस भाँति चारों दिशाओंमें आठ नाटयशालाएं बनती हैं। प्रत्येक नाटयशाला तीन खण्डको होती है, और उसके बड़े बड़े खम्भ स्वर्ण के बने हए होते हैं, उनकी भित्तियोंमें स्फटिक मणि और शिखरोंमें रत्न जड़े होते हैं। इन नाट्यशालाओं में देवकन्याएं नत्य करते हुए, भगवान्के विजय-गीत गाती हैं।
यशपाल मोड़ ( १२वीं शताब्दी ईसवो) ने मोहपराजय नाटककी रचना की थी। यह एक रूपक है । इसमें सम्राट् कुमारपालके जैनधर्ममें दीक्षित होने, पशुहिंसापर प्रतिबन्ध लगाने और निःसन्तान मरनेवालोंकी सम्पत्ति हस्तगत करलेनेकी कथा, रूपकके द्वारा उपस्थित की गयी है। यह नाटक कुमार-विहारमें १. पं० पन्नालाल जैन साहित्याचार्यके सम्पादन और हिन्दी-अनुवादसहित
भारतीय ज्ञानपीठ, काशीसे, वि० सं० २०११ में प्रकाशित हो चुका है। २. तीन भागोंमें, डॉ० पी० एल० वैद्य के सम्पादन में माणिकचन्द दिगम्बर जैन
ग्रन्थमाला, बम्बईसे, १९३७-४१ ईसवीमें निकल चुका है। ३. भगवजिनसेनाचार्य, आदिपुराण : प्रथम भाग, पं. पनालाल सम्पादित,
मारतीय ज्ञानपीठ, काशी, वि० सं० २००७, १४।१२। ४. देखिए वही : १४४१३२ । ५. देखिए वही : १४११०३।। ६. यतिवृषभ, तिलोय पण्णति : प्रथम माग, डॉ. उपाध्ये और डॉ. जैन
सम्पादित, शोलापुर, १७५६-६०।..