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जन-भक्तिका स्वरूप
भी भक्ति है । प्राचार्य कुन्दकुन्दके चरित्र पाहुडकी २६वीं गाथाका अनुवाद करते हुए पं० जयचन्द छाबड़ाने लिखा है, " एकान्त स्थानमें बैठकर अपने आत्मिक स्वरूपका चितवन करना, वा पंचपरमेष्ठीका भक्ति-पाठ पढ़ना सामायिक है ।' आचार्य सोमदेवने भी यशस्तिलकमें आप्तसेवाके लिए स्नपन, पूजन, स्तोत्र, जप, ध्यान और श्रुतस्तवको सामायिक कहा है । आचार्य श्रुतसागर सूरिने एकाग्र मनसे देववन्दनाको सामायिक मानकर भक्तिकी ही प्रतिष्ठा की है । आचार्य अमितगतिका सामायिकपाठ तो भक्ति-पाठ ही है ।"
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जैनाचार्योंने समाधिको उत्कृष्ट ध्यानके अर्थ में लिया है । उनके अनुसारचित्तका सम्यक् प्रकारसे ध्येयमें स्थित हो जाना ही समाधि है । समाधिमें निविकल्पक अवस्था तक पहुँचने के पूर्व मनको पंचपरमेष्ठीपर टिकाना अनिवार्य है ।
१. अष्टपाहुड : श्री पाटनी दि० जैन ग्रन्थमाला, मारौठ, चरित्रपाहुड : २६वीं गाथाका हिन्दी अनुवाद |
२. आप्तसेवोपदेशः स्यात्समयः समयार्थिनाम् । नियुक्तं तत्र यत्कर्म तत्सामायिकमूचिरे ॥
स्नपनं पूजनं स्तोत्रं जपो ध्यानं श्रुतस्तवः ।
षोढा क्रियोदिता सद्भिदेवसेवासु गेहिनाम् ॥
आचार्य सोमदेव, यशस्तिलकचम्पू : दूसरा भाग, कान्यमाला ७०; निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, १९०१ ई०, आठवाँ आश्वास |
३. "देववन्दनायां निःसंक्लेशं सर्वप्राणिसमता चिन्तनं सामायिकम् इत्यर्थः । " स्वार्थवृत्ति : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, ७।२१, पृ० २४५ ॥ ४. प्राचार्य अमितगतिका समय वि० सं० १०५० माना जाता है । उनके सामायिक पाठमें अनेक सरस स्थल हैं, जिनमें एक इस भाँति है— यः स्मर्थ्यते सर्वमुनीन्द्रवृन्दैः
यः स्तूयते सर्वनरामरेन्द्रः ।
यो गीयते वेदपुराणशास्त्रैः
स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥ १२ ॥ "समाधिना शुक्लध्यानेन केवलज्ञानलक्षणेन राजते शोभते इति समाधिराट्” पं० आशाधर, सहस्त्रनाम : ज्ञानपीठ, काशी, ६।७४, स्वोपज्ञवृत्ति : पृ० ९१ ।
६. 'चेतसश्व समाधानं समाधिरिति गद्यते'
अनेकार्थ निघण्टु : ज्ञानपीठ, काशी, १२४ वाँ पब, पृ० १०५ ।
७. देखिए, परमात्मप्रकाश : बम्बई, १६३वीं गाथाका हिन्दी माध्य, पृ० ३०६ ।
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