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जैन-मक्तिका स्वरूप न्तरिक तप छह प्रकारका होता है, जिनमें विनय, वैय्यावृत्त्य और ध्यान मुख्य हैं। स्वाध्याय, संयम, गुरु, संघ और सब्रह्मचारियोंमें यथोचित आदर-सम्मानका भाव रखना विनय है। इसको सेवा भी कहते हैं, जो भक्तिका न्युत्पत्त्यर्थ है। विनयके चार भेद हैं जिनमें एक चारित्रविनय भी है। उसकी व्याख्या करते हुए आचार्य वसुनन्दिने लिखा है, "परमागममें पांच प्रकारका चरित्र और उसके जो अधिकारी या धारण करनेवाले वर्णन किये गये हैं, उनके आदर-सत्कारको चारित्रविनय जानना चाहिए।" चारित्रविनय चारित्र-भक्ति ही है। वैय्यावृत्त्यका अर्थ भी सेवा ही है और उसका सम्बन्ध भक्तिसे है, ऐसा कहा जा चुका है।
ध्यान और भक्तिमें एकरूपता है। आचार्य उमास्वातिने 'एकाग्रचिन्ता निरोधो ध्यानम्' कहा है। इस सूत्रपर आचार्य पूज्यपादने लिखा है, "नानाविलम्बनेन चिन्तापरिस्पन्दवती, तस्या अन्याशेषमुखेभ्यो व्यावर्त्य एकस्मिन्नने नियम एकानचिन्तानिरोध इत्युच्यते । अनेन ध्यानस्वरूपमुक्तं भवति ।" भक्तको भी अपना मन सब ओरसे हटाकर भगवान्में केन्द्रित करना पड़ता है। ध्यानके द्वारा मनको आत्मामें एकाग्र करना होता है और भक्तिके द्वारा इष्टदेवमें । किन्तु जैनोंके इष्टदेव पंचपरमेष्ठी और आत्मस्वरूपमें कुछ भी अन्तर नहीं है। तो फिर भक्ति और ध्यानमें ही कैसे हो सकता है। आचार्य कुन्दकुन्दको दृष्टिमें पंचपरमेष्ठीका चिन्तवन, आत्माका ही चिन्तवन है। आचार्य योगीन्दुने भो लिखा है, 'जो १. 'प्रायश्चित्त-विनय-बैय्यावृत्य-स्वाध्याय-व्युत्सर्ग-ध्यानान्युत्तरम्' ।
उमास्वाति, तत्वार्थसूत्र : ९।२०।। २. स्वाध्याये संयमे संघे गुरौ सब्रह्मचारिणि ।
यथौचित्यं कृतात्मानो विनयं प्राहुरादरम् ॥ K. K. Handiqui, Yasastilak and Indian culture, Jain sanskriti samrakshaka sangha, Sholapur, 1949, P. 262,No I. पंचविहं चारित्तं अहियारा जे य वणिया तस्स। जंतेसिं बहुमाणं वियाण चारित्तविणओ सो॥ आचार्य वसुनन्दि, वसुनन्दिश्रावकाचार : पं० हीरालाल सम्पादित, भारतीय
ज्ञानपीठ, काशी, १९५२, ३२३वीं गाथा, पृ० ११४ ।। ४. आचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि : पं० फूलचन्द्र सम्पादित, भारतीय ज्ञानपीठ
काशी, १९५५, पृ० ४४४। ५. अरुहा सिद्धायरिया उमाया साहु पंचपरमेट्टी।
ते वि हु चिट्ठहि आधे तम्हा आदा हु मे सरणं ॥ अष्टपाहुड : श्री पाटनी दि. जैन ग्रन्थमाला, मासैब, गाथा १०४वीं ।