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जैन-मक्तिकाम्यकी पृष्ठभूमि हो चुकी है, स्व आत्मा कहलाती है।' ज्ञानी उसी आत्मामें, अपने समाषितेजसे अभेदको स्थापना करता है। भक्त भी आत्माके अभेद तक पहुँचता है, किन्तु पंचपरमेष्ठीके माध्यमसे । भक्त पंचपरमेष्ठीमें अभेद निष्ठाका अनुभव करता है। जैनाचार्योने पंचपरमेष्ठीको शुद्ध आत्मरूप ही माना है। अतः पंचपरमेष्ठीमें अभेदको स्थापना ही आत्माके साथ अभेद सम्बन्ध है। दोनों ही को आत्माकी उपलब्धिसे प्राप्त हुए अनिर्वचनीय आनन्दका स्वाद समान रूपसे मिलता है।
शाण्डिल्यने ज्ञानको पराभक्तिके रूपमें ही स्वीकार किया है। आत्मदर्शनके लिए भी आत्मामें वैसी ही अनन्य निष्ठा चाहिए, जैसी भक्तकी भगवान्में होती है। शाण्डिल्यने अखण्ड आत्मरति या आत्मामें लीन होने ही को भक्ति कहा है। 3 जैन तो भगवनिष्ठा और आत्मनिष्ठाको एक ही मानते हैं, क्योंकि उनके शास्त्रोंमें भगवान् और आत्माका एक ही रूप माना गया है। अतः भक्ति और ज्ञानकी जैसी एकरूपता जैनोंमें घटित होती है, वैसी अन्यत्र नहीं । ... मार्ग बाह्यरूप है और दोनों के मार्गोंमें भेद है। ज्ञानमार्गमें बुद्धि प्रबल होती है और भक्तिमें भाव । ज्ञानमार्ग सूखा और परिश्रम-साध्य है, जब कि भक्तिमें सरसता और सरलता होती है। ज्ञानीको निरवलम्ब रहकर, अपने ही सहारेसे, आत्माके शुद्धस्वरूप तक पहुँचना होता है, भक्तको भगवान्का सहारा है। इस भांति उनके मार्गों में भेद है, किन्तु लक्ष्य, प्रयोजन और फलजन्य स्वादकी दृष्टिसे दोनों समान हैं।
ज्ञान प्राप्त करनेके लिए तप, ध्यान और समाधिकी परीक्षामें उत्तीर्ण होना आवश्यक है । भक्ति एक द्रवणशील पदार्थकी भांति इन तीनोंमें अभिव्याप्त रहती है । आचार्योंने तपके दो भेद किये हैं-बाह्य तप और आभ्यन्तरिक तप । आभ्य
१. सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः प्रगुणगुणगणोच्छादि-दोषापहारात्,
योग्योपादानयुक्त्या दृषद इह यथा हेमभावोपलब्धिः ॥
आचार्य पूज्यपाद, सिद्धिमक्ति : प्रथम श्लोक । २. 'अनन्यभक्त्या तबुद्धिर्बुद्धिलयादत्यन्तम्'
शाण्डिल्यमक्तिसूत्र : पं० रामनारायण दत्त हिन्दी-अनूदित, गीता प्रेस,
गोरखपुर, ३९६, पृ० ५२ । ३. 'आत्मरत्यविरोधेनेति शाण्डिल्यः'
देखिए, नारदप्रोक्तं भक्तिसूत्रम् , श्रीबैजनाथ पण्डया हिन्दी-अनूदित, बनारस, १८वाँ सूत्र, पृ० ४।