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जन-भक्तिका स्वरूप
उतनी ही सुश्रद्धा
आराध्य के प्रति जितना अनुराग है, नाम भक्ति है | आचार्य कुन्दकुन्दने जिनेन्द्रकी भक्तिसे कथन है, "निर्मल सम्यग्दर्शनका धारक जीव है, सो जिन भक्ति सहित है, यातें
दोनों ही के समन्वयका मोक्ष माना है। उनका
एक दूसरे स्थानपर उन्होंने,
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प्रवचन जो मोक्ष मार्गका निरूपण, ता विषे सोहं है ।' मुक्ति पानेमें, विनयको अनिवार्य घोषित किया है, जो कि भक्तिका हो पर्यायवाची है । एक तीसरे स्थानपर तो उन्होंने स्पष्ट ही कहा कि निर्वेद - परम्परा - का चितवन करनेवाले, ध्यानमें रत और सुचरित्र, देव गुरुओंके भक्त मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं । आचार्य समन्तभद्रने जिनेन्द्रकी भक्तिसे स्वालय अर्थात् मोक्षमें विराजित होनेकी बात लिखी है।' आचार्य पूज्यपादकी दस भक्तियोंमें, भक्तिसे मोक्ष प्राप्त करनेका वर्णन, स्थान-स्थानपर हुआ है । भगवान् सिद्धकी वन्दना करते हुए उन्होंने लिखा, "बत्तीस दोषरहित कायोत्सर्गको करके, जो अत्यन्त भक्तिसहित, शुद्धात्मस्वरूप भगवान् सिद्धको वन्दना करता है, वह शीघ्र ही मोक्ष-को प्राप्त कर लेता है ।" शान्ति भक्तिके एक श्लोकमें, उन्होंने भगवान्
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9. जह फणिराओ सोहरफणमणिमाणिक्क किरणविप्फुरिओ । तह विमलदंसणधरो जिणमत्ती पवयणे जीवो ॥
कुन्दकुन्दाचार्य, अष्टपाहुड : श्री पाटनी दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, मरौठ
[ मारवाड़ ], भावपाहुड : १४५वीं गाथा ।
विणयं पंचपयारं पालहि मण-त्रयण-कायजोएण । अविणयणरा सुविहियं तत्तो मुक्तिं न पावंति ॥ देखिए वही, भावपाहुड : १०४वीं गाथा । ३. देवगुरुम्मियभत्तो साहम्मिय संजुदेसु अणुरत्तो । सम्मत्तमुग्वहंतो झाणरभो होइ जोईसो || देखिए वही, मोक्षपाहुड : ५२वीं गाथा ।।
४. यद्भक्त्या शमिताकृशाधमरुजं तिष्ठेज्जनः स्वालये
ये सभोगकदायतीव यजते ते मे जिनाः सुश्रिये ॥
आचार्य समन्तभद्र, स्तुतिविद्या : पं० जुगलकिशोर मुख्तार सम्पादित, हिन्दी - अनूदित वीरसेवामन्दिर, सरसावा, वि. सं० २००७, ११६वाँ पद्य, पृ० १४१ ।
५. कृत्वा कायोत्सर्ग चतुरष्टदोषविरहितं सुपरिशुद्धम् ।
अभिसंप्रयुक्तो यो वन्दते स लघु लभते परमसुखम् ॥
आचार्य पूज्यपाद, सिद्ध-भक्ति, दशभक्त्यादिसंग्रह : श्री सिद्धसेन जैन गोलीय सम्पादित, सलाल [ साबरकांठा ], गुजरात, वी० नि० २४८१, पृ० ११२.