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जैन-भक्तिकान्यकी पृष्ठभूमि
आचार्य वसुनन्दिने भी अपने श्रावकाचारमें लिखा है, "अरहंत-भक्ति आदि पुण्यक्रियाओंमें, शुभ-उपयोगके होनेसे पुण्यका आस्रव होता है, और इसके विपरीत अशुभोपयोगसे पापका आस्रव होता है, ऐसा श्री जिनेन्द्रदेवने कहा है।'' . संसार और देवलोकमें ऐसी कोई ऋद्धि-सिद्धि नहीं है, जो पुण्यके द्वारा सुलभ न हो सके। चक्रवर्ती और इन्द्रका पद पुण्य-कर्मसे ही उपलब्ध होता है। किन्तु पुण्य-कर्म मोक्ष देने में समर्थ नहीं है । आचार्य कुन्दकुन्दका कथन है कि पुण्य भोगका निमित्त है, कर्म-क्षयका नहीं। उनकी दृष्टिमें पाप और पुण्य दोनों ही संसारका बन्ध करते हैं। आचार्य योगीन्दुने भी पुण्यको मोक्षका कारण नहीं माना। किन्तु जिनेन्द्रको स्तुतिसे केवल पुण्य-कर्मका आस्रव ही नहीं होता, अपितु सम्यग्दर्शन भी उत्पन्न होता है, जो मोक्षका मुख्य हेतु है । भक्तिमें
1. अरहन्त भत्तियाइसु सुहोवओगेण आसवइ पुण्णं ।
विवरीएण दु पावं णिहिट जिणवरिंदेहि ॥ आचार्य वसुनन्दि, वसुनन्दि श्रावकाचार : पं० हीरालाल सम्पादित, हिन्दीअनूदित, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, अप्रैल १९५२, पृ० ७७, ४०वीं
गाथा। २. साहदि य पत्तेदि य रोचेदि च तह पुणो वि फासेदि ।
पुण्णं भोयणिमित्तं ण हु सो कम्मक्खयणिमित्तं ॥ कुन्दकुन्दाचार्य, अष्टपाहुड : आचार्य श्रुतसागरकी संस्कृत टीका, पं० जयचन्द छावड़ाकी माषाटीकासहित, श्री पाटनी दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला,
मारौठ [ मारवाड़ ], भावपाहुड : ८४वीं गाथा । ३. सोवणियं पि णियलं बंधदि कालायसं पि जह पुरिसं । बंधदि एवं जीवं सुहमसुहं वा कदं कम्मं ॥ आचार्य कुन्दकुन्द, समयसार : श्री पाटनी दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला,
मारौठ [ मारवाड़], १९५३, १४६वीं गाथा, पृ० २३० । ४. मं पुणु पुण्णहूँ मल्ला: णाणिय ताइ भणंति ।
जीवहँ रजई देवि लहु दुक्खइँ जाई जणंति ॥ पुण्णेण होइ विहवो विहवेण मओ मएण मइ-मोहो। मइ-मोहेण य पावं ता पुण्णं अम्ह मा होउ ॥ श्री योगीन्दु, परमात्मप्रकाश : श्री आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्याय सम्पादित, परमश्रुतप्रभावकमंडल, बम्बई, १९३७ ईस्वी, ५७वाँ और ६०वाँ दोहा, पृ० १९८, २०१॥