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जैन-भक्तिकाव्यकी पृष्ठभूमि
पूजा करते हुए, अनुरागके कारण जो लेशमात्र पापका उपार्जन होता है, वह बहुपुण्य राशिमें उसी प्रकार दोषका कारण नहीं बनता, जिस प्रकार कि विषकी एक कणिका, शोत- शिवाम्बुराशिको ठण्डे कल्याणकारी जलसे भरे हुए समुद्रकोदूषित करने में समर्थ नहीं होती । अर्थात् जिनेन्द्रमें अनुराग करनेसे लेश- मात्र ही सही, पाप तो होता है, किन्तु पुण्य इतना अधिक होता है कि वह रंच मात्र पाप उसको दूषित करनेकी सामर्थ्य नहीं रखता ।
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आचार्य कुन्दकुन्दने वीतरागियोंमें अनुराग करनेवालेको सच्चा योगी कहा है | उनका यह भी कथन है कि आचार्य, उपाध्याय और साधुओं में प्रीति करनेवाला सम्यग्दृष्टी हो जाता है । अर्थात् उनको दृष्टिमें वीतरागीमें किया गया अनुराग, यत्किञ्चित् भी पापका कारण नहीं है ।
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'पर' में होनेवाला राग ही बन्धका हेतु है । वीतरागी परमात्मा 'पर' नहीं, अपितु स्व आत्मा ही है । श्री योगीन्दुका कथन है कि मोक्षमें रहनेवाले भगवान् सिद्ध और देहमें तिष्ठनेवाले आत्मामें कोई भेद नहीं है । आत्मा ही शुद्ध होकर
१. पूज्यं जिनं स्वार्चयतो जनस्य सावद्यलेशो बहु-पुण्यराशौ । दोषाय नाऽलं कणिका विषस्य न दूषिका शीत- शिवाम्बुराशौ ॥
आचार्य समन्तभद्र, स्वयम्भूस्तोत्र : पं० जुगलकिशोर मुख़्तार सम्पादित, हिन्दी - अनूदित, वीरसेवा मन्दिर, सरसावा, जुलाई १९५१, १२/३, पृ०४२ / देवगुरुम्मिय मत्तो साहम्मिय संजुदेसु अणुरत्तो । सम्मतमुग्वहंतो झाणरओ होइ जोईसो ॥
भाचार्य कुन्दकुन्द, अष्टपाहुड : पाटनी जैन ग्रन्थमाला, मोक्षपाहुड, ५२वीं गाथा ।
जो कुणदि वच्छलतं तियेह साहूण मोक्खमग्गम्मि । सो वच्छल भावजुदो सम्मादिट्ठी मुणेयब्वो ॥
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माठ [ मारवाड़ ],
आचार्य कुन्दकुन्द, समयसार : पं० परमेष्ठीदास हिन्दी अनूदित,
श्री पाटनी दि० जैन ग्रन्थमाला, मारौठ [ मारवाड़ ], फरवरी १९५३,
२३५वीं गाथा, पृ० ३४८ ।
जेहउ निम्मलु णाणमउ सिद्धिहि णिवसइ देउ । तेहउ णिवसह बंभु परु देहहँ मं करि भेउ |
श्रीमद् योगीन्दुदेव [ छठी शताब्दी ईसवी ], परमात्मप्रकाश : श्री ब्रह्मदेवकी संस्कृतवृत्ति और पं० दौलतरामकी हिन्दी टीका युक्त, श्री आदिनाथनेमिनाथ उपाध्याय सम्पादित, परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बम्बई, नयी भावृत्ति, १९३७ ईसवी, २६वाँ दोहा, पृष्ठ ३३ ।