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जैन-मतिका स्वरूप
कामीको नारी प्यारी होती है वैसे ही जब भगवान् प्यारा हो जाये तो वह उत्तम भक्ति है। इसीकी व्याख्या करते हुए डॉ. वासुदेवशरण अग्रवालका कथन है, "जब अनुराग स्त्रीविशेषके लिए न रहकर, प्रेम, रूप और तप्तिको समष्टि किसी दिव्य तत्त्व या रामके लिए हो जाये तो वही भक्तिको सर्वोत्तम मनोदशा है।'' ___अनुरागमें प्रेमीका मन सब ओरसे हटकर जैसे प्रेमिकापर केन्द्रित रहता है, वैसे ही भक्तका भगवान्में । अनुरागमें जैसी तल्लीनता और एकनिष्ठता सम्भव है, अन्यत्र नहीं । जैन कवि आनन्दघनने भक्तिपर लिखते हुए कहा है : "जिस प्रकार उदर-भरणके लिए गोयें वनमें जाती हैं, घास चरती हैं, चारों ओर फिरती हैं, पर उनका मन अपने बछड़ोंमें लगा रहता है, वैसे ही संसारके कामोंको करते हुए भी भक्तका मन भगवान्के चरणोंमें लगा रहता है ।" एक-दूसरे स्थानपर उन्होंने महात्मा तुलसीदासकी भांति कहा कि जिस प्रकार कामीका मन, अन्य सब सुध-बुध खोकर काम-वासनामें ही तृप्त होता है, अन्य बातोंमें उसे रस नहीं मिलता, वैसे ही प्रभु-नाम और स्मरणादि रूप भक्तिमें, भक्तकी अविचल अनन्य निष्ठा होती है। उसका मन सिवा भगवान्के अन्यत्र कहीं भी नहीं जाता। वीतरागी भगवान्में अनुराग
जैनोंका भगवान् वीतरागी है। वह सब प्रकारके रागोंसे उन्मुक्त होनेका उपदेश देता है। राग कैसा ही हो कर्मोंके आस्रव [आगमन ] का कारण है, फिर उस भगवान्में, जो स्वयं वीतरागो है, राग कैसे सम्भव है ?
उत्तर देते हुए आचार्य समन्तभद्रका कथन है, "पूज्य भगवान् जिनेन्द्रको
१. डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, मक्तिका स्वाद : कल्याण, वर्ष ३२, अंक'
[ भक्ति अंक ] जनवरी १९५८, गोरखपुर, पृ. १४४ । २. ऐसे जिन चरण चितपद लाऊँ रे मना,
ऐसे अरिहंत के गुण गाऊँ रे मना । उदर मरण के कारणे रे गउवाँ बन में जाय । चारौ चरै चहुँदिसि फिरै, बाकी सुरत बछह माँय ॥१॥ महात्मा आनन्दधन, आनन्दधनपदसंग्रह : अध्यात्मज्ञानप्रसारकमहल,
३. जुवारी मन में जुवा रे, कामी के मन काम ।
आनन्दधन प्रभु यों कहै, दू भगवत को नाम ॥ ४ ॥ देखिए वही।