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जैन मक्तिकाव्य की पृष्ठभूमि
जैन पुरातत्त्वमें चैत्यों का स्थान
यदि मोहनजोदडोकी विवादग्रस्त मूर्तियोंको छोड़ दिया जाये, तो भी यह सिद्ध है कि नन्दोंसे पूर्व ही, जैन मूर्तियोंका निर्माण होने लगा था । सम्राट् खारवेल अपने पूर्वजोंकी, नन्दोंके द्वारा अपहृत, जिन-मूर्तिको फिर जीत कर लाया था । इसके अतिरिक्त तेरापुर में राजा करकण्डु-द्वारा निर्मापित गुफा मन्दिरों और मूर्तियोंका अस्तित्व आज भी पाया जाता है । इनका निर्माण-काल ईसासे आठ शताब्दी पूर्व माना गया है। अभी कुछ समय पूर्व लोहिनीपुर ( पटना ) में एक जिन-मूर्ति मिली है, जो मौर्य-कालमें बनी थी। डॉ० जायसवालने उसका
श्री वी० ए० स्मिथका
समय ईसा से तीन शताब्दी पूर्व कथन है कि ईसासे १५० वर्ष पूर्व, चैत्य-भक्ति
निर्धारित किया है। मथुरा में एक जैन मन्दिर था ।
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चैत्य-वृक्ष, चैत्य सदन, प्रतिमा, बिम्ब और मन्दिरोंको पूजा-अर्चा चैत्य-भक्ति कहलाती है । कहा जाता है कि चैत्य-भक्तिका प्रारम्भ गौतम गणधर ने 'जयति भगवान्' से किया था । उसका भाव है, "भगवान् स्वर्णके कमलोंपर पैर रखते हुए चलते हैं । उन चरणों में अमरोंके मणि-जटित मुकुट भी झुका करते हैं । उनकी शरण में जानेवाले कलुष-हृदय 'विगतकलुष' और परस्परवैरी, परस्पर विश्वासको प्राप्त हो जाते हैं ।'
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१. देखिए, हाथीगुम्फ शिलालेख : हिन्दी अनुवाद सहित पंक्ति १२, प्रो० खुशालचन्द गोरावाला, कलिंगाधिपति खारवेल, जैन सिद्धान्तभास्कर : भाग १६, किरण २, दिसम्बर १९४९, पृ० १३४ ।
२. कामताप्रसाद जैन, भारतीय इतिहासमें जैन काल : हुकुमचन्द अभिनन्दन
-ग्रन्थ, पृष्ठ २९३ ।
३.
पं० कैलाशचन्द्र, जैनकला और पुरातत्व : 'जैनधर्म', चौरासी, मथुरा, १९५५ ई०, पृष्ठ २५९ ।
४. वी. ए. स्मिथ, दि. जैन स्तूप एण्ड अदर एण्टीक्विटीज ऑव मथुरा : प्रस्तावना, पृष्ठ ३ ।
५. जयति भगवान् हेमाम्भोजप्रचारविजृम्भिता
बमरमुकुटच्छायोद्गीर्ण प्रभापरिचुम्बितौ ।
कलुषहृदया मानोद्भान्ताः परस्परवैरिणः farnagar: पादौ यस्य प्रपद्य विशश्वसुः ॥
संस्कृत चैस्य भक्ति : दशमत्यादि संग्रह : श्लोक १, पृ० २२६ ।