________________
जैन मक्तिके भेद
१३७
चैत्य यक्षोंके आवासगृह थे। मुनि कान्तिसागरने लिखा है कि ईसा पूर्व छठी शताब्दी में सभी जिन सदन, यक्ष-चैत्योंके रूपमें ही मिलते थे। रायस shash भी स्वीकार किया है कि बुद्ध से पूर्व यक्ष- चैत्य थे, उनमें यक्षोंकी भक्ति होती थी ।
२
चैत्य और प्रतिमा
श्री अभयदेव सूरिने, भगवती सूत्रकी वृत्तिमें जिन प्रतिमाको 'चैत्य' शब्दसे उल्लेखित किया है ।' आचार्य कुन्दकुन्दने षट्पाहुडके बोध प्राभृत में, जिनेन्द्रके बिम्ब और प्रतिमाको चेत्य कहा है ।" अभिवान-राजेन्द्रकोश में लिखा है, "नित्य पूजाके लिए जो अर्हन्तकी प्रतिमा स्थापित की जाती है, वह चैत्य कहलाती है ।"" चैत्य और आत्मा
आचार्य कुन्दकुन्दने शुद्ध ज्ञानरूप आत्माको भी चैत्य कहा है, और ऐसी आत्माको धारण करनेवाले, वीतरागी मुनिको चैत्य-गृह माना है ।" उन व्यक्तियों की समाधिपर ही चेत्यालय बनाये जाते हैं, जिन्होंने शुद्ध आत्मा प्राप्त कर ली हो । जैनों में केवल पंच परमेष्ठियोंके ही चैत्यालय बनते हैं ।
चैत्यालय और मन्दिर
चैत्यालय छोटा और मन्दिर बड़ा होता है। अपेक्षाकृत चैत्यालय पुराना है । मन्दिर देवोत्सव के लिए बने थे और चैत्यालयोंका जन्म महापुरुषोंकी समाधि पर हुआ था । आज दोनों ही जिन सदन हैं ।
१. मुनि कान्तिसागर, खण्डहरोंका वैभव : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १९५३,
पृष्ट ६९ ।
2. Rhys Davids, The Dialogues of Buddha, Vol. II, p. 110, F, N.
३. भगवती सूत्र : अभयदेवसूरिको वृत्तिके साथ, आगमोदय समिति, बम्बई,
प्रथम उत्थान |
४. आचार्य कुन्दकुन्द, बोधपाहुड : अष्टपाहुड : मारोठ, ९वीं गाथाका पं० जयचन्द छाबड़ा कृत हिन्दी अनुवाद |
५. 'नित्यपूजार्थं गृहे कारितात्प्रतिमा चैत्य मिति' ।
अभिधान - राजेन्द्र कोश : भाग ५, पृष्ठ १३६६ ।
आचार्य कुन्दकुन्द, बोध पाहुडः अष्टपाहुड : मारौठ, गाथा ८ |
१८
६.