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আল-মকিঙ্কাব্দী মুনি संघसहित सम्मेदशिखरको तीर्थ यात्रा ( वि. सं. १६७१ ) की थी।'
११. नन्दीश्वर-भक्ति नन्दीश्वर-द्वीप ___जन-शास्त्रोंके अनुसार, मध्यलोकमें असंख्यात द्वीप और समुद्र हैं । वे एकदूसरेको घेरे हुए, दूने विस्तार और चूड़ीके आकारवाले हैं। उन सबके मध्यमें जम्बूद्वीप है, उसका विस्तार एक लाख योजन है, उसे दो लाख योजनका लवणसमुद्र घेरे हुए है। इसी क्रमसे आठवां द्वीप, नन्दीश्वर द्वीप है। उसका विस्तार एक सौ त्रेसठ करोड़ चौरासी लाख योजन है, वह नन्दीश्वर समुद्रसे घिरा
- उसकी चार दिशाओंमें काले वर्णके चार अजनगिरि है । जिनमें से प्रत्येक ८४००० योजन ऊंचा है। इनके चारों ओर चार-चार जलवापिकाएँ हैं, जो एक लाख योजन लम्बी-चौड़ी हैं। इन सोलह वापिकाओंके मध्यमें सफ़ेद रंगके दषिमुख पर्वत है, जो दस-दस सहस्र योजन ऊँचे हैं। प्रत्येक जलवापिकाके बाहरके कोनेमें लाल वर्णके दो-दो रतिकर पर्वत हैं, वे एक-एक सहस्र योजन अंबे हैं।
इस प्रकार चार अञ्जनगिरि, सोलह दधिमुख और बत्तीस रतिकर पर्वतोंका योग पावन होता है। इनमें प्रत्येकपर एक-एक विशाल जिनमन्दिर है, सभी अकृत्रिम हैं, और अनादि कालसे चले आ रहे हैं। हरेक जिनमन्दिर ७२ योजन ऊंचा है, उनमें पांच सौ धनुष ऊंची जिन-प्रतिमाएं विराजमान है ।
1. मुनि कान्तिसागर, खोजको पगडण्डियाँ : पृ० २६२ । २. जम्बूद्वीप-लवणोदादयः शुमनामानो द्वीपसमुद्राः ॥
द्वि-द्विविष्कम्माः पूर्व-पूर्व-परिक्षेपिणो वलयाकृतयः ॥
उमास्वाति, तत्वार्थसूत्र : ३१७-८, पृ० ६७-६८ । ३. तन्मध्ये मेहनामिवृत्तो योजन-शतसहस्रविष्कम्भो जम्बूद्वीपः ॥
देखिए वही : ३।९, पृ० ६८ । ४. नन्दीश्वर-द्वीपके इस वर्णनके लिए देखिए, यतिवृषम, तिलोयपण्णत्ति :
भाग २, महाधिकार ५वाँ, गाथा ५२-११५, पृष्ठ ५३६-५४४ ।