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जैन-भक्तिके भेद
तीर्थकर समवशरणमें विराजकर १४ पूर्व और १२ अंगोंका उपदेश देता है। उसकी ध्वनि, "दिव्यध्वनि' कहलाती है। मुनिको न तो समवशरणकी विभूति ही मिलती है और न दिव्यध्वनि ही। तीर्थंकरके ८ प्रातिहार्य होते हैं, मुनिके एक भी नहीं। मुनि तीर्थकरके बनाये पथपर चलकर ही लक्ष्य प्राप्त कर पाता है।
उदित होता हुआ सूर्य, स्वर्णके दो कलश, तालाबमें क्रीड़ा करती हुई दो मछलियाँ, सुन्दर तालाब, क्षुभित समुद्र, ऊँचा सिंहासन, स्वर्गका विमान, पृथ्वीको भेद कर ऊपर आया हुआ नागेन्द्र-भवन, रत्नोंकी राशि
और जलती हुई धूमरहित अग्नि । भगवज्जिनसेनाचार्य : महापुराण, प्रथम भाग, १२११०४-११९, पृ.
२५९-२६०। १. शरीर-रश्मि-प्रसरः प्रभोस्ते, बालार्क-रश्मिच्छविराऽऽलिलेप । नराऽमराऽऽकीर्ण-सभां प्रमा वा, शैलस्य पनाममणेः स्वसानुम् ॥ आचार्य समन्तभद्र, स्वयम्भूस्तोत्र : ६।३ पृ. २१ ।
और श्री यतिवृषभने तिलोयपण्णत्तिमें समवशरणकी बनावट और शोमाका विशद वर्णन किया है।
देखिए तिलोयपण्णत्ति : प्रथम भाग, ७१६-८८७ पृ० २३२-२६१ । २. दिव्यध्वनिर्भवति ते विशदार्थसर्व-भाषास्वभावपरिणामगुणैः प्रयोज्यः ॥
श्रीमानतुङ्गाचार्य, भक्तामरस्तोत्र : काव्यमाला, सप्तम गुच्छक, ३५वाँ श्लोक, पृ०७॥
और दिव्यमहावनिरस्य मुखाब्जान्मेघरवानुकृतिर्निरगच्छत् ।
भव्यमनोगतमोहतमोहनन् अद्युतदेष यथैव तमोऽरिः ॥ . भगवजिनसेनाचार्य, महापुराण : प्रथम भाग, २३॥६९, पृ० ५४९ । ३. दिव्यछत्र, अशोकवृक्ष, दिव्यध्वनि, सिंहासन, दुन्दुभि, पुष्पवृष्टि, ६४
चमर और भामण्डल, ये पाठ प्रातिहार्य होते हैं । देखिए दशमक्त्यादिसंग्रह : प्राचार्य पूज्यपाद, निर्वाणमति: १४वाँ श्लोक, पृ० १९२।
श्रीयतिवृषभ, तिलोयपणत्ति : प्रथम माग, ४।९१९-९२७, पृ० २६५ ।