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जैन-मतिकान्यकी पृष्ठभूमि
है कि संसारके आवागमनसे मुक्त करानेवाला निमित्त तीर्थ है। उस निमित्तके विधाता होनेके कारण सर्वज्ञदेव तीर्थंकर कहलाते हैं। मुनि और तीर्थकरमें भेद
एक ही लक्ष्यको प्राप्त करते हुए भी मुनि और तीर्थकरमें भेद होता है। तीर्थकर मौलिक मार्गका स्रष्टा होता है, मुनि नहीं। इसी कारण तीर्थकरके आगे धर्मचक्र चलता है।
तीर्थकर नाम-कर्मके उदयसे तीर्थंकर-पद मिलता है। तीर्थकरके पंचकल्याणक महोत्सव मनाये जाते हैं, मुनिके किसी अवसरपर-ज्ञान और मोक्ष मिलनेपर भी-कोई उत्सव नहीं होता। तीर्थकरकी माँ सोलह स्वप्न देखती हैं, मुनिकी माने एक भी स्वप्न देखा था, ऐसा कहीं उल्लेख नहीं है ।
श्रीमच्छान्तिसूरि, चेइयवंदणमहामासं : श्री आत्मानन्द ग्रन्थमाला, ३०२वीं गाथा, पृ० ५५ । धर्मेणोपलक्षितं चक्रं धर्मचक्रम् । धर्मचक्रं विद्यते यस्य स धर्मचक्री । भगवान् पृथिवीस्थितमन्यजनसंबोधनार्थं यदा विहारं करोति तदा धर्मचक्रं स्वामिनः सेनायाः अग्रेऽग्रे निराधारं आकाशे चलति । उक्तञ्च धर्मचक्रलक्षणं श्री देवनन्दिना स्वामिना भट्टारकेणरफुरदरसहस्ररुचिरं विमलमहारत्नकिरणनिकरपरीतम् । प्रहसितसहस्रकिरणद्युतिमण्डलमग्रगामि धर्मसुचक्रम् ।।
देखिए, सहस्रनाम : २।२७ की श्रुतसागरी टीका, पृ० १५१ । २. यदिदं तीर्थकरनामकर्मानन्तानुपमप्रभावमचिन्त्यविभूतिविशेषकारणं त्रेलो.
क्यविजयकरं तस्यास्रवविधिविशेषोऽस्तीति ।
भाचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि : भारतीय ज्ञानपीठ, पृष्ठ ३३७-३३८ । ३. तीर्थकरके गर्म, जन्म, तप, ज्ञान और मोक्ष पंचकल्याणक कहलाते हैं । उन
अवसरोंपर मनाये जानेवाले उत्सव 'पंचकल्याणक महोत्सव' कहलाते हैं। इन उत्सवोंमें पूजे जानेके कारण तीर्थकर 'पंचकल्याण-पूजित' कहे जाते हैं। पं. माशाधर, जिनसहस्रनाम : ३३३३की स्वोपशवृत्ति, पृ० ७१।
और इसीको प्राचार्य पूज्यपादने 'पंचमहाकल्लाणसंपण्णाणं' कह कर अभिव्यक्त किया है।
देखिए दशमस्यादि-संग्रह : आचार्य पूज्यपाद, तीर्थकरमक्ति : पृष्ठ १७३ । ४. ऐरावत हाथी, वृषभ, सिंह, लक्ष्मी, दो पुष्पमालाएँ, पूर्ण चन्द्र ,