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जैन मक्तिकाव्य की पृष्ठभूमि
है । आचार्य पूज्यपादने भी लिखा है, "यह पंचनमस्कारका मन्त्र सब पापोंको नष्ट करनेवाला है और जीवोंका कल्याण करनेमें सबसे ऊपर है ।" "
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मुनि वादिराज ( ११वीं शताब्दी विक्रम ) ने एकीभावस्तोत्र में कहा है, "जब पापाचारी कुत्ता भी णमोकार मन्त्रको सुनकर देव हो गया, तब यह निश्चित है कि उस मन्त्र का जाप करनेसे यह जीव इन्द्रकी लक्ष्मीको पा सकता है ।" श्री जिनप्रभसूरि ( १४वीं शताब्दी विक्रम ) ने भी 'पंचपरमेष्ठिनमस्कारकल्प' में लिखा है, "इस मन्त्रकी आराधना करनेवाले योगीजन, त्रिलोकके उत्तम पदको प्राप्त कर लेते हैं । यहाँतक ही नहीं, किन्तु सहस्रों पापोंका सम्पादन करनेवाले और सैकड़ों जन्तुओं की हत्या करनेवाले तिर्यञ्च भी इस मन्त्रकी भक्ति से स्वर्ग में पहुँच जाते हैं।"
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अरुहा सिद्धायरिया उवझाया साहु पंचपरमेट्ठि । एदे पंच णमोयारा भवे भवे मम सुहं दितु ॥
दशभक्ति:, शोलापुर, १९२१ ई०, आचार्य कुन्दकुन्द, प्राकृत पंचगुरुभक्ति : ७वी गाथा, पृष्ठ ३५८ ।
२. एष पञ्चनमस्कारः सर्वपापप्रणाशनः ।
मङ्गलानां च सर्वेषां प्रथमं मङ्गलं भवेत् ॥
देखिए वही आचार्य पूज्यपाद, संस्कृतपंच गुरुमति: ७वाँ श्लोक
पृष्ठ ३५३ ।
३. प्रापद्दैवं तव नुतिपदैजीव के नोपदिष्टैः
पापाचारी मरणसमये सारमेयोऽपि सौख्यम् । कः संदेहो यदुपलभते वासवश्रीप्रभुत्वं
जल्पआप्यैर्मणिभिरमलैस्त्वन्नमस्कारचक्रम् ॥
श्री वादिराजसूरि, एकीभावस्तोत्र : काव्यमाला, सप्तम गुच्छक, निर्णयसागर
प्रेस, बम्बई, १९२६, १२वाँ श्लोक, पृष्ठ १९ । ४. एतमेव महामन्त्रं समाराध्येह योगिनः ।
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त्रिलोक्याsपि महीयन्तेऽधिगताः परमं पदम् ॥ कृत्वा पापसहस्राणि हत्वा जन्तुशतानि च । अमुं मन्त्रं समाराध्य तिर्यञ्चोऽपि दिवं गताः । जिनप्रभसूरि, विविध तीर्थकल्प : मुनि जिनविजय सम्पादित, जैन ज्ञानपीठ, शान्ति-निकेतन, बंगाल, १९३४ ई०, प्रथम भाग, पंचपरमेष्ठिनमस्कारकल्प: ५-६ श्लोक, पृ० १०८ |
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