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[ख] ग्रंथों में स्त्रीमुक्ति का स्पष्टतः निषेध किया है। किन्तु उन्होंने व्यवस्था से न तो गुणस्थान चर्चा की है और न कर्मसिद्धान्त का विवेचन किया है, जिससे उक्त मान्यता से शास्त्रीय चिंतन शेष रह जाता है। शास्त्रीय व्यवस्था से इस विषय की परीक्षा गुणस्थान और कर्मसिद्धान्त के आधार पर ही की जा सकती है । तदनुसार जब हम विचार करते हैं नो निम्न परिस्थिति हमारे सन्मुग्न उपस्थित होती है
-दिगम्बर आम्नाय के प्राचीनतम प्रन्थ षट् खंडागम के सूत्रों में मनुष्य और मनुष्यनी अर्थात पुरुष और स्त्री दोनों के अलग अलग चौदहीं गुणस्थान बतलाये गये हैं। देखो सत्प्र. सूत्र ६३; द्रव्य प्र. ४६, १२४-१२६; क्षेत्र प्र. ४३, सशन प्र. ३४-३८, १०२-११०; काल प्र. ६८-८२, २०७-२३५; अन्तर प्र. ५७-७७, १७८-१६२; भाव प्र. २२,४१, ५३-८०, १४५-१६१)
२-यपाद कृन सर्वार्थसिद्धि टीका तथा नेमिचन्द्र अ : गोम्मटमार प्रन्थ में भी तीनों वेदोंसे चौदहों गुणस्थानों की प्राप्ति स्वीकार की गई है। किन्तु इन ग्रन्थों में सकेत यह किया गया है कि यह बात केवत्त भाव वेदकी अपेक्षा में घटित होती है । इमदा पुगो स्पष्टीकर गा अमितगति वा गोम्मटमार कधीकाकारों ने यह किया है कि तीनों भाव वेदों का नीनों द्रयवेत्रों के माथ पृथक पृथक संयोग हो सकता है जिससे नौ प्रकार के प्राणी होते हैं । इसका अभिप्राय यह है कि जो मनुष्य द्रव्यसे पुरुष होता है वही तीनों वेदों में से किसी भी