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[ ५७ ] लिये उनके लेख की पंक्तियां हम यहां देते हैं
__ "नौ प्रकार के जीवों की तो कोई संगति ही नहीं बैठती, क्योंकि द्रव्य में पुरुष और स्त्रीलिंग के सिवाय तीसरा तो कोई प्रकार ही नहीं पाया जाता जिससे द्रव्य नपुंसक के तीन अलग भंद बन सकें। पुरुष और स्त्रीवेद में भी द्रव्य और भाव के वैपम्य मानने में ऊपर बताई हुई कठिनाई के अतिरिक्त और भी अनेक प्रश्न खड़े होते हैं। यदि वैषम्य हो सकता है तो वेद के द्रव्य और भाव-भेद का तात्पर्य ही क्या रहा ? किसी भी उपांग विशेष को पुरुष या स्त्री कहा ही क्यों जाय ? अपने विशेष उपांग के बिना अमुक वेद उदय में आवेगा ही किस प्रकार ? यदि आ सकता है तो इसी प्रकार पांचों इन्द्रिय ज्ञान भी पांचों द्रव्येन्द्रियों के परस्पर संयोग से पच्चीस प्रकार क्यों नहीं हो जाते ? इत्यादि ।”
पाठक ऊपर की प्रो० सा० की पंक्तियों को ध्यान से पढ़ लेवें। उनका कहना है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेद तो ठीक है परन्तु नपुंसकवेद तो कोई द्रव्यवेद है ही नहीं। इस लिये द्रव्य नपुंसक के साथ जो अलग तीन भेद कहे गये हैं वे नहीं बन सकते हैं। प्रो० सा० स्त्री पुरुषों के सिवा किसी को नपुंसक नहीं समझते हैं तो वे यह बतावें कि हीजड़ा लोग जो सर्वत्र पाये जाते हैं, नाचना, गाना जिनका पेशा है। उन्हें वे पुरुष समझते हैं या स्त्री ? कन्या अथवा बालक का बाह्य चिन्ह शरीर में देखकर छोटा बालक भी कह देता है कि यह