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लिंगम् ।
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( तत्वार्थ राजवार्तिक पृष्ठ ११० )
इसका अर्थ यही है कि लिंग दो प्रकार होते हैंएक द्रव्यलिंग दूसरा भावलिंग | उनमें द्रव्यलिंग तो नाम कर्म के उदय से होता है, उसकी योनि मेहन आदि शरीर में नियत चिन्ह रूप रचना होती है। और चारित्र मोहनीय के भेद नोकषाय के उदय से तीन भाववेद होते हैं । यही कथन ज्यों का त्यों सर्वार्थ सिद्धि आदि ग्रंथों में भी है अधिक प्रमाण देना व्यर्थ है । इतना ही पर्याप्त है। इन प्रमाणों में यह बात कहीं भी नहीं मिल सकती है कि भाववेद के उदय के अनुसार ही द्रव्यवेद की रचना होती है ।
'इसी प्रकार जीव में जिस वेद का बन्ध होगा उसी के अनुसार वह पुद्गल रचना करेगा और तदनुकूल ही उपांग उत्पन्न होगा यदि ऐसा न हुआ तो वह वेद ही उदय में नहीं आ सकेगा ।'
यह प्रो० सा० का लिखना ऊपर के हमारे बहुत खुलासा कथन से सर्वथा खण्डित हो जाता है ।
प्रो० सा० ने अनुभव, युक्ति और आगमसे शून्य तथा प्रत्यक्ष विरुद्ध अपनी बात को सिद्ध करने के लिये आगे और भी जो लिखा है वह ऐसा है जिसे पढ़कर हर कोई हंसे बिना नहीं रहेगा। और उनके कथन को प्रत्यक्ष - विरुद्ध सर्वथा निराधार एवं निःसार समझेगा। पाठकों की जानकारी के