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[३८] बताई है। परन्तु लेश्या कषायों के उदय सहित योग प्रवृत्ति में होती है, ऐसी अवस्था में यह शंका होती है कि तेरहवें गुणस्थान में अहंत भगवान के जब कषाय नष्ट हो चुकी है तब वहां लेश्या कैसे सिद्ध हो सकती है। क्योंकि कषाय तो दशवें गुणस्थान के अन्त में ही सर्वथा नष्ट हो जाती है, इस लिये कषाय सहित योग प्रवृत्ति तेरहवें गुणस्थान में नहीं है । अतः वहां शुक्ल लेश्या का जो सद्भाव कहा गया है वह नहीं बन सकता है ?
इसके समाधान में आचार्यों ने सर्वत्र यही उत्तर दिया है कि यद्यपि तेरहवें गुणस्थान में कषाय नहीं है। पहले गुणस्थान से लेकर दशवें गुणस्थान तक योगों के साथ रहने वाली कषाय का अभाव होने पर भी उस कपाय का साथी योग तो तेरहवें गुणस्थान में रहता है। इस लिये विशेषणभूत कषाय साथी के हट जाने पर भी विशेष्य भूत योगों के रहने से उपचार से वहां लेश्या मानी जाती है। उसी प्रकार नौवें गुणस्थान तक मनुष्य गति के साथ विशेषण रूप से रहने वाला भाव-स्त्रीवेद यद्यपि नौवें के ऊपर नहीं रहता है, परन्तु उसका विशेष्यभूत साथी मनुष्य गति तो रहती है। इस लिये चौदह गुणस्थान तक भाव-खोवेद का साथी मनुष्य गति रहने से उपचार से भाव-स्त्रीवेद की अपेक्षा से चौदह गुणस्थान कहे गये हैं।
ऐसा ही हिन्दी अर्थ धवला टीका में भी छपा हुआ है