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[६] इस लिये उसके पहले के ही प्रमाणभूत हैं, पीछे के नहीं। 'प्राचार्यों की अप्रामाणिकता से उनकी शाख-रचना भी अप्रमाण है' यह फलतः सिद्ध है।
इस प्रकार की ऐतिहासिक खोज में वे लोग सहर्ष भाग लेते हैं जो विचार-स्वातन्त्र्य रखते हैं। परन्तु इस प्रकार की खोज में प्रमाणता की कोई कसौटी नहीं है। उसके हेतुवाद में कोई समीचीनता नहीं है। केवल अन्वेषकों की
आनुमानिक (अंदाजिया ) बातें हैं। "हमारी समझ से ऐसा मानना चाहिये। अमुक आचार्य अमुक समय के होने चाहिये" बस इसी प्रकार की संदिग्ध लेखनी द्वारा वे टटोलते फिरते हैं। कोई निश्चित बात न तो वे कह सकते हैं और न वर्तमान इतिहास की पद्धति किसी निश्चित सिद्धान्त तक पहुंच ही पाती है।
खोज किसी बात की बुरी नहीं है किन्तु आचार्य परम्परागत वस्तु-व्यवस्था के विरुद्ध स्वबुद्धयनुसार स्वमन्तव्य की स्थापना और उसका प्रचार बुरा है। वर्तमान में यही हो रहा है। अन्यथा बताइये कि भगवान ऋषभदेव हुए हैं
और उनके असंख्यात वर्षों पीछे अजितनाथ हुए हैं इत्यादि व्यवस्था की सिद्धि वर्तमान पद्धति के इतिहास से किस प्रकार सिद्ध की जा सकती है ? इसकी सिद्धि के लिये न तो कोई शिलालेख मिलेगा और न कोई ताम्रपत्र या पुरातन चिन्ह आदि ही मिलेगा। इनकी सिद्धि के लिये हमारे यहां तो