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[ १२१ ] १- मोहनीय कर्म का उदय होना चाहिये तभी क्षुधादि की
बाधा हो सकती है। २- असाता वेदनीय का भी उदय होना चाहिये। ३- साथ में पेट खाली रहना चाहिये। ४- श्राहार करने की अभिलाषा-चाहना भी होना चाहिये।
परन्तु ये सब बातें बिना मोहनीय कर्म के साथ २ असाता वेदनीय कर्म के उदय से नहीं हो सकती हैं। तथा भोजन करने के लिये उपयोग नहीं होने पर तथा आहार सामग्री के नहीं देखने पर असाता कर्म की उदीरणा भी नहीं हो सकती है। जब क्षुधा आदि बाधा को पैदा करने वाली सामग्री ही नहीं है तब अहेन्त भगवान के क्षुधादि की बाधा भी नहीं हो सकती है।
यदि भगवान अहँन्त के क्षुधादि की बाधा मानी जायगी तो उनके अनन्त सुख सिद्ध नहीं होता है। और यदि वे निराहार नहीं रह सकते हैं तो भगवान के अनन्त शक्ति मानी गई है वह कैसे सिद्ध होगी ? तथा भगवान सदैव अनन्त ज्ञान में उपयुक्त रहते हैं तब उनके भोजन और पान करने की संज्ञा (आहार संज्ञा) कैसे उत्पन्न हो सकती है ? नहीं हो सकती। इस लिये जिनेन्द्र भगवान के भोजन पान की बाधा बताना मिथ्या है।
अब पाठक स्वयं विचार करें कि तत्वार्थसूत्र के “एका. दश जिने" इस सूत्र का अर्थ सर्वार्थ-सिद्धि, राजवार्तिक तथा