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करना, कषायों का निग्रह करना, मन-वचन-काय इन तीन इण्डों का त्याग करना तथा पांचों इन्द्रियों पर विजय करना यह भी संयम है ।
प्रो० सा० केवल व्रतों का नाम ही संयम बताते थे किन्तु उसी धवल में दूसरे भी संयम के भेद हैं फिर इतना ही नहीं है, उत्तम क्षमा आदि दश धर्म भी संयम हैं । परीषद जय भी संयम है । सायायिक छेदोपस्थापना आदि चारित्र भी संयम है। ये सभी संयम के स्वरूप हैं । परन्तु प्रो० सा० न धवल सिद्धान्त का नाम देकर केवल व्रतों को संयम बता कर यह सिद्ध करना चाहा है कि वस्त्र त्याग संयम में नहीं है सो उनका वैसा कथन विपरीत है । द्रव्यसंयम और भावसंयम के अन्तर को उन्हें समझना चाहिये, साथ ही पांच व्रत मात्र ही भावसंयम नहीं है किंतु भावसंयम के अनेक भेद हैं । अठारह हजार शील के भेद, लाखों उत्तर गुण ये सब भावसंयम के भेदों में गर्भित हैं ।
as far as प्रमाणों से प्रो० सा० ने सव संगम और सत्र मात-सिद्धि विधान बताया है उन सब प्रत्यों के वे ही प्रमाण उनके कथन के सर्वथा विपरीत - वस्त्रत्याग के अनिवार्य विधायक हैं उन सब प्रन्थों से यह बात
द्ध हो जाती है कि बिना वस्त्र-त्याग किये संयम का होना एवं मुक्ति का पाना सर्वथा असम्भव है ।
आगे इस भकरण के अन्त में प्रो० सा० लिखते हैं कि -
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