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मुनि के नहीं हो सकती ।
इस गाथा की टीका में श्वेताम्बर साधुओं का खण्डन किया गया है अर्थात् श्वेताम्बर साधु वस्त्र धारण करते हैं इस लिये उनको वस्त्र धारण करने से आने वाले सभी दोष लगते , परन्तु दिगम्बर नम साधुत्रों के एक भी दोष नहीं लगता है। क्योंकि उनके पास कोई परिग्रह नहीं रहता है ।
जिस प्रकार स्वामी कुन्दकुंदाचार्य की गाथा की टीका मैं श्राचार्य श्रुत सागर ने श्वेताम्बर मत का खण्डन किया है, उसी प्रकार यहां पर भी श्वेताम्बर - मान्यता का अथवा सेव संयम की मान्यता का सहेतुक खण्डन किया गया है । परन्तु . खेद है कि प्रो० सा० ने उसी ८३ वीं गाथा का प्रमाण संवस्त्रसंयम सिद्ध करने के लिये देकर ग्रन्थ का सर्वथा विपरीत अर्थ किया है ।
भगवती आराधना में सर्वत्र यही बात स्पष्ट की गई है कि वस्त्र त्याग ही मुक्ति प्राप्ति का उपाय है, उसके बिना संयम की प्राप्ति सम्भव है। मुक्ति के लिये तीर्थंकरों ने वस्त्रत्याग किया था, वही उपाय मोक्ष के चाहने वाले सभी साधुओं को करना आवश्यक है । इानाचार, दर्शनाचार धारण करना जैसे परमावश्यक है। वैसे वस्त्रत्याग भी मुक्ति के लिये परमाव - श्यक है इत्यादि कथन श्रागे की ८५ से लेकर अनेक गाथाश्र में लिया है। पाठकगण भगवती आराधना के उस प्रकरण को देख लेवें । यहां पर अब इससे अधिक लिखना अनाव