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________________ [ == ] इत्थीविय जं लिंगं दिट्ठ उत्सग्गियं व इदरं वा । तं तह होदि हु लिंग परित मुत्रधिं करेंतीए || ( भगवती आराधना गाथा ८१ ) इसका अर्थ वही है जो प्रो० सा० की प्रमाण में दी हुई ७६ वीं गाथा का है। अर्थात जो आर्यिकाएं हैं वे तो एकांत स्थान में सन्यास मरण के समय मुनिवत् नम रहकर उत्सर्ग लिंग धारण कर सकती हैं । श्राविका भी सन्यास मरण के समय एकांत स्थान आदि अनुकूल सामग्री मिलने से उत्सर्गलिंग अर्थात् नग्नता धारण कर सकती है । परन्तु जौं भाविका सम्पत्तिशाली हो, लज्जा वाली हो तथा जिसके बांधव मिध्यादृष्टि हों तो वह श्राविका अपवादलिंग ही रक्खेगी । अर्थात सवत्र ही रहेगी। सम्पत्तिशाजी, लज्जा वाली, अनेक मनुष्यों के समुदाय में घर में रहने वाली तथा मिध्यादृष्टि बंधु-बांधव वाली श्राविका तथा ७६ वीं गाथा के अनुसार जैसा श्रावक गृहस्थ दोनों ही सन्यासमरण समय में भी उत्सर्गलिंग अर्थात् नम दिगम्बर मुनि लिंग नहीं धारण कर सकते हैं किन्तु सन्यासमरण भी वे सवत्र रहकर ही करें ऐसी शास्त्राज्ञा है । इन ऊपर की गाथाओं से यह बात बहुत स्पष्ट हो चुकी कि जो मुनि की सवत्रता सिद्ध करने के लिये प्रो० सा० ने भगवती आराधना के ७६ वीं गाथा का प्रमाण दिया है वह मिथ्या है। आगे उन्होंने ८३ वीं गाथा को भी मुनि की सवत्रता सिद्ध करने के लिये दिया है, वह भी उस गाथा के.
SR No.010088
Book TitleDigambar Jain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages167
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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